Monday, April 8, 2019

लक्ष्मी सहगल का जीवन Life of Lakshmi Sahgal

लक्ष्मी सहगल Lakshmi Sahgal




लक्ष्मी सहगल का प्रारंभिक जीवन:

लक्ष्मी सहगल का जन्म मद्रास प्रेसिडेंसी के मालाबार में 24 अक्टूबर 1914 को हुआ था। उनके पिता डा.स्वामीनाथन मद्रास हाई कोर्ट में वकील और माँ अम्मू स्वामीनाथन समाज सेवक थी। लक्ष्मी सहगल ने चेन्नई मेडिकल कॉलेज से 1937 में MBBS की उपाधि प्राप्त की , उन्होंने अपनी माँ की प्रेरणा से आजाद हिन्द फ़ौज में सेवा करने का निर्णय किया।

लक्ष्मी सहगल का आज़ादहिंद फौज से जुड़ना एवं संघर्ष:

21 अक्टूबर 1945 को आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस पर उन्होंने जनसभा में भाषण दिया यधपि आजाद हिन्द फ़ौज भंग कर दी गयी है लेकिन उसका उद्देश्य अभी पूरा नही हुआ है। 1940 में अपने पति राव के साथ अनबन होने से वो भारत छोडकर सिंगापुर चली गयी। इसी दौरान उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज में प्रवेश लिया था। 1945 में उनको गिरफ्तार कर भारत भेज दिया गया जब वो आजाद हिन्द फ़ौज की तरफ से बर्मा पहुच गयी थी। जब दिल्ली में आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिको पर मुकदमा चल रहा तो लक्ष्मी सहगल ने इसका घोर विरोध किया। अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें वापस लौटने का नोटिस दिया परन्तु वे दिल्ली से बाहर नही आयी। अंग्रेजो ने दूसरा नोटिस दिया तब उनको मजबूरन दिल्ली छोडना पड़ा। प्रतिबन्ध समाप्त होने के बाद वे भारत आयी और आजाद हिन्द फ़ौज के कर्नल सहगल से उन्होंने विवाह किया और वे डा.स्वामीनाथन से लक्ष्मी सहगल हो गयी।

लक्ष्मी सहगल का निजी जीवन:

डॉ. लक्ष्मी ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया और फिर कानपुर आकर बस गईं। बाद में वे सक्रिय राजनीति में भी आयीं और 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। 1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वर्ष 2002 में वाम दलों की ओर से डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ीं थीं।
विवाह के बाद उन्होंने कामपुर में मेडिकल प्रैक्टिस शुरू की।1952 में लक्ष्मी सहगल ने देहात में डा.सुनन्दा बाई के साथ जाकर काम किया। 1971 में बांग्लादेश युद्ध में उन्होंने कलकत्ता में पीपुल्स रिलीफ पार्टी में शामिल होकर काम किया।

लक्ष्मी सहगल की अंतिम समय एवं मृत्यु:

23 जुलाई 2012 को कानपुर में 97 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। 1998 में लक्ष्मी सहगल (Lakshmi Sahgal) को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।
उनकी बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं. सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फिल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने साथिया, बंटी और बबली इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं।प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।

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Friday, April 5, 2019

महाराजा भोज का इतिहास। History of Raja Bhoj.

राजा भोज Raja Bhoj






महाराजा भोज इतिहास:

राजा भोज प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे व सिंधुराज के पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम लीलावती था। परमारवंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं। उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं।

कई महान ग्रंथों के रचयिता थे राजा:

राजा भोज ने काव्यशास्त्र और व्याकरण का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने अपने जीवनकाल के दौरान बहुत सी किताबें लिखी. राजा से जुड़ी मान्यताओं के मुताबिक उन्हें 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त थी, जिन्हें लेकर उन्होंने अलग-अलग विषयों पर करीब 84 ग्रंथो की रचना की।
इनमे, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, ज्योतिष, संगीत, विज्ञान, योगशास्त्र, दर्शन, कला और राजनितिशास्त्र प्रमुख हैं। इसके साथ-साथ सरस्वती कंठाभरण, सिद्वांत संग्रह, राजकार्तड,विद्या विनोद जैसे ग्रंथ भी इन्हीं की देन है।
खैर, कहते न कि कोई कितना भी अच्छा क्यों न हो, एक न एक दिन अंत सभी का होता ही है, फिर क्या राजा और क्या प्रजा। 
अपने शासनकाल के अंतिम समय में राजा को युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा। एक युद्ध के दौरान राजा भोज पर गुजरात के राजा चालुक्य और चेदि नरेश की सेनाओं ने संयुक्त रुप से हमला कर दिया। हालांकि, इस युद्ध में भी राजा भोज व उनकी सेना बड़ी बहादुरी से लड़ी थी. मगर भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया और वह इस युद्ध में हार गए।

एक कहावत "कहां राजा भोज कहां गंगू तेली" की कहानी:

राजा भोज ने भोजशाला तो बनाई ही मगर वो आज भी जन जन में जाने जाते हैं एक कहावत के रूप में "कहां राजा भोज कहां गंगू तेली"। किन्तु इस कहावत में गंगू तेली नहीं अपितु "गांगेय तैलंग" हैं। गंगू अर्थात् गांगेय कलचुरि नरेश और तेली अर्थात् चालुका नरेश तैलय दोनों मिलकर भी राजा भोज को नहीं हरा पाए थे।
ये दक्षिण के राजा थे। और इन्होंने धार नगरी पर आक्रमण किया था मगर मुंह की खानी पड़ी तो धार के लोगों ने ही हंसी उड़ाई कि "कहां राजा भोज कहां गांगेय तैलंग" । गांगेय तैलंग का ही विकृत रूप है "गंगू तेली" । जो आज "कहां राजा भोज कहां गंगू तेली"  रूप में प्रसिद्ध है ।
धार शहर में पहाड़ी पर तेली की लाट रखी हैं, कहा जाता है कि राजा भोज पर हमला करने आए तेलंगाना के राजा इन लोहे की लाट को यहीं छोड़ गए और इसलिए इन्हें तेली की लाट कहा जाता है।
"कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली" कहावत का यही असली रहस्य हैं । इसी पर चल पड़ी थी यह कहावत।

राजा भोज की मृत्यु :

अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में भोज परमार को पराजय का अपयश भोगना पड़ा। गुजरात के चालुक्य राजा तथा चेदि नरेश की संयुक्त सेनाओं ने लगभग 1060 ई. में भोज परमार को पराजित कर दिया। इसके बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।

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Tuesday, April 2, 2019

गोपाल कृष्ण गोखले : महान स्वतंत्रता सेनानी। Gopal Krishna Gokhale: Indian Freedom Fighter

गोपाल कृष्ण गोखले Gopal Krishna Gokhle





गोपाल कृष्ण गोखले का प्रारंभिक जीवन परिचय:

भारत के वीर सपूत गोपाल कृष्ण गोखले 9 मई 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के कोथलक गांव में एक चितपावन ब्राह्राण परिवार में जन्मे थे। गोखले ने एक गरीब परिवार में जन्म लिया था, लेकिन दुनिया को उन्होंने इस बात का कभी एहसास नहीं होने दिया और अपने जीवन में कई ऐसे काम किए जिनके लिए उन्हें आजादी के इतने साल बाद आज भी याद किया जाता है।
इनके पिता का नाम कृष्ण राव था, जो कि एक किसान थे और अपने परिवार का पालन-पोषण खेती कर करते थे लेकिन क्षेत्र की मिट्टी खेती के उपयुक्त नहीं थी। जिसकी वजह से उन्हें इस व्यापार से कुछ खास आमदनी नहीं हो पाती थी। इसलिए मजबूरी में उन्हें क्लर्क का काम करना पड़ा।
वहीं गोपाल कृष्ण गोखले की माता का नाम वालूबाई था, जो कि एक साधारण घरेलू महिला थीं और हमेशा अपने बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती थी।
बचपन से ही गोपाल कृष्ण को काफी दुख झेलने पड़े थे। दरअसल बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया था। जिससे बचपन से ही वे सहिष्णु और कर्मठ और कठोर बन गए थे। गोपालकृष्ण गोखले के अंदर शुरु से ही देश-प्रेम की भावना थी, इसलिए देश की पराधीनता उनको बचपन से ही कचोटती रहती और राष्ट्रभक्ति की अजस्त्र धारा का प्रवाह उनके ह्रदय में हमेशा बहता रहता था।
इसलिए बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। वे सच्ची लगन, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता की त्रिधारा में वशीभूत होकर काम करते थे।

भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने बड़े भाई की मद्द से ली। परिवारिक स्थिति को देखते हुए उनके बड़े भाई ने गोखले की पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता की।
जिसके बाद उन्होंने राजाराम हाईस्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वे मुंबई चले गए और साल 1884 में 18 साल की उम्र में मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

गोपाल कृष्ण गोखले का स्वाधीनता आंदोलन में झुकाव एवं सहयोग:

इतिहास के ज्ञान और उसकी समझ ने उन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली को समझने और उसके महत्व को जानने में मद्द की। वहीं एक शिक्षक के रुप में गोपाल कृष्ण गोखले की सफलता को देखकर बाल गंगाधर तिलक और प्रोफेसर गोपाल गणेश आगरकर का ध्यान उनकी तरफ गया और उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को मुंबई स्थित डेक्कन ऐजुकेशन सोसाइटी में शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया।
गोपाल कृष्ण गोखले हमेशा आम जनता के हित के बारे में सोचते रहते थे और उनकी परेशानियों का समाधान करने को अपना फर्ज समझते थे। वे गांधी जी के आदर्शों पर चलते थे। जिसमें समन्वय का गुण हमेशा व्याप्त रहता था। वहीं कुछ समय के बाद वे बाल गंगाधर तिलक के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज्वाइंट सेक्रेटरी बन गए।
वहीं गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक दोनों में ही काफी सामानताएं थीं, जैसे कि दोनो ही चितपावन ब्राह्मण परिवार से तालुक्कात रखते थे और दोनों ने ही मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। इसके अलावा दोनों ही गणित के प्रोफेसर थे और दोनों ही डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी के प्रमुख सदस्य भी थे।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जब कांग्रेस में साथ-साथ आए तो दोनों का ही मकसद गुलाम भारत को आजादी दिलवाने के साथ-साथ आम भारतीयों को मुश्किलों से उबारना था लेकिन समय के साथ गोखले और तिलक की विचारधाराओं और सिद्धांतों में एक अपरिवर्तनीय दरार पैदा हो गई।

महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले:

महात्मा गांधी के मुताबिक गोपाल कृष्ण गोखले को राजनीति का अच्छा ज्ञान था। गोखले के प्रति गांधी जी की अटूट श्रद्धा थी लेकिन फिर भी वह उनके वेस्टर्न इंस्टिट्यूशन के विचार से सहमत नहीं थे और उन्होंने गोखले की सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी का सदस्य बनने से मना कर दिया और उन्होंने गोखले के ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर सामाजिक सुधार कार्यों को आगे बढ़ाते हुए देश चलाने वाले उद्देश्य का समर्थन नहीं किया। वहीं उस समय महात्मा गांधी नए-नए बैरिस्टर बने थे और दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलन के बाद भारत लौटे थे। तब उन्होंने भारत के बारे में और भारतीयों के विचारों के बारे में समझने के लिए गोखले का साथ चुना क्योंकि गांधी जी, गोपाल कृष्ण गोखले के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित थे।
जिसके बाद स्वतंत्रता सेनानी गोखले ने कुछ समय तक महात्मा गांधी जी के सलाहकार के रुप में काम किया और भारतीयों की समस्याओं पर विचार-विमर्श किया। साल 1920 में गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लीडर बन गए। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में गोखले को अपना सलाहकार और मार्गदर्शक कहकर भी संबोधित किया है।

गोपाल कृष्ण गोखले का अंतिम समय एवं मृत्यु:

भारत का हीरा कहे जाने वाले गोपाल कृष्ण गोखले के जीवन के आखिरी दिनों में डाईबिटिज, कार्डिएक और अस्थमा जैसी बीमारियां हो गई थी। जिसके बाद 19 फरवरी साल 1915 को मुंबई, महाराष्ट्र में उनकी मृत्यु हो गई और इस तरह भारत का बहादुर और पराक्रमी सपूत हमेशा के लिए सो गया।

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Wednesday, March 27, 2019

राम प्रसाद बिस्मिल। Ram Prasad Bismil

राम प्रसाद बिस्मिल Ram Prasad Bismil




राम प्रसाद बिस्मिल का प्रारंभिक जीवन परिचय:

राम प्रसाद बिस्मिल जी का जन्म 11 जून 1897 में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था इसलिए आज इसी दिन को राम प्रसाद बिस्मिल जयंती के नाम से भी मनाया जाता है। राम प्रसाद बिस्मिल के पिता मुरलीधर शाहजहाँपुर नगर पालिका के एक कर्मचारी थे। राम प्रसाद ने अपने पिता से ही हिंदी भाषा सीखी थी और उन्हें उर्दू सीखने के लिए मौलवी के पास भेजा गया था। राम प्रसाद बिस्मिल एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला लेना चाहते थे, लेकिन उनके पिता इसके लिए राजी नहीं थे और उन्हें पिता की अस्वीकृति के बिना एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला मिल गया। उनके पूर्वज ब्रिटिश प्रधान राज्य ग्वालियर के निवासी थे। राम प्रसाद बिस्मिल के पिता शाहजहाँपुर की नगर पालिका बोर्ड के एक कर्मचारी थे।

रामप्रसाद के जन्म के समय तक इनका परिवार पूरी तरह से समाज में एक प्रतिष्ठित व सम्पन्न परिवारों में गिना जाने लगा था। इनके पिता ने विवाह के बाद नगर पालिका में 15/-रुपये महीने की नौकरी कर ली और जब वो इस नौकरी से ऊब गये तो इन्होंने वो नौकरी छोड़कर कचहरी में सरकारी स्टॉम्प बेचने का कार्य शुरु कर दिया। इनके पिता मुरलीधर सच्चे दिल के और स्वभाव से ईमानदार थे। इनके सरल स्वभाव के कारण समाज में इनकी प्रतिष्ठा स्वंय ही बढ़ गयी।


रामप्रसाद बिस्मिल जी का स्वाधीनता आंदोलन से जुडना:

वह बहुत ही कम उम्र में उन्होंने आठवीं कक्षा तक अपनी शिक्षा पूरी की और वह  हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। क्रांतिकारी संगठनों के माध्यम से राम प्रसाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, अशफाक उल्ला खान, राजगुरु, गोविंद प्रसाद, प्रेमकिशन खन्ना, भगवती चरण, ठाकुर रोशन सिंह और राय राम नारायण आदि के साथ स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा ऋषि अरबिंदो की योगिक साधना का अनुवाद किया गया था। राम प्रसाद बिस्मिल के ये सभी कार्य ‘सुशील माला’ नामक सीरीज में प्रकाशित हुए। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा गोरखपुर जेल की कोठरी में लिखी थी। 
1916 में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था जिसमें शामिल होने के लिये बाल गंगाधर तिलक आ रहे थे। जब ये सूचना क्रांन्तिकारी विचारधारा के समर्थकों को मिली तो वो सब बहुत उत्साह से भर गये। लेकिन जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि तिलक जी का स्वागत केवल स्टेशन पर ही किया जायेगा तो उन सब के उत्साह पर पानी फिर गया। रामप्रसाद बिस्मिल को जब ये सूचना मिली तो वो भी अन्य प्रशंसकों की तरह लखनऊ स्टेशन पहुँच गये। इन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर परामर्श किया कि जैसे एक राष्ट्र के नेता का स्वागत होना चाहिये उसी तरह से तिलक का भी स्वागत बहुत भव्य तरीके से किया जाना चाहिये। दूसरे दिन लोकमान्य तिलक स्टेशन पर स्पेशल ट्रेन से पहुँचे। उनके आने का समाचार मिलते ही स्टेशन पर उनके प्रशसकों की बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गयी। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा लखनऊ उन्हें एक बार देखने के लिये उमड़ पड़ा हो।

बिस्मिल अज़ीमाबादी के द्वारा 1921 में लिखी उर्दू कविता " सरफरोशी की तमन्ना " को रामप्रसाद बिस्मिल जी ने अंग्रेजी सरकार से स्वाधीनता के नारे से जोड़कर साथियों के अंदर नई ऊर्जा फूक दी थी वह कविता की मुख्य पंती इस प्रकार है:

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ  !
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ? "

रामप्रसाद बिस्मिल जी के अंतिम दिनों की कहानी:

राम प्रसाद बिस्मिल ने 9 क्रांतिकारियों के साथ हाथ मिलाकर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए काम किया और रामप्रसाद बिस्मिल और उसके सहयोगी अशफाक उल्ला खान के गुरुमंत्र का पालन करके उन्होंने काकोरी ट्रेन डकैती के माध्यम से सरकारी खजाने को लूट लिया।
काकोरी कांड में दोषी ठहराए जाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने फैसला सुनाया कि मृत्यु के लिए राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दी जाएगी। उन्हें गोरखपुर में सलाखों के पीछे रखा गया था और तब 19 दिसंबर, 1927 में 30 साल की उम्र में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था।
उनकी मृत्यु ने देश के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य क्रांतिकारियों का बल छीन लिया था। उन्हें काकोरी कांड के शहीद के रूप में याद किया जाता है।
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Tuesday, March 26, 2019

राजा कृष्णदेव राय जी का जीवन परिचय। Story of Raja Krishnadev rai.

राजा कृष्ण देवराय


राजा कृष्णदेव राय का जन्म 16 फरवरी 1471 ईस्वी को कर्नाटक के हम्पी में हुआ था। उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और माता का नाम नागला देवी था। उनके बड़े भाई का नाम वीर नरसिंह था। नरसा नायक सालुव वंश का एक सेनानायक था। नरसा नायक को सालुव वंश के दूसरे और अंतिम अल्प वयस्क शासक इम्माडि नरसिंह का संरक्षक बनाया गया था। इम्माडि नरसिंह अल्पायु था, इसलिए नरसा नायक ने उचित मौके पर उसे कैद कर लिया और सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया। तुलुवा नरसा नायक ने 1491 में विजयनगर की बागडोर अपने हाथ में ली। यह ऐसा समय था, जब साम्राज्य में इधर-उधर विद्रोही सिर उठा रहे थे। 1503 ई. में नरसा नायक की मृत्यु हो गई। 




बाजीराव की तरह ही कृष्ण देवराय एक अजेय योद्धा एवं उत्कृष्ट युद्ध विद्या विशारद थे। इस महान सम्राट का साम्राज्य अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक भारत के बड़े भूभाग में फैला हुआ था जिसमें आज के कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, गोवा और ओडिशा प्रदेश आते हैं।
महाराजा के राज्य की सीमाएं पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक पहुंच गई थीं। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनका आधिपत्य स्वीकार करते थे। उनके राज्य की राजधानी हम्पी थी। हम्पी के एक और तुंगभद्रा नदी तो दूसरी ओर ग्रेनाइड पत्थरों से बनी प्रकृति की अद्भुत रचना देखते ही बनती है। इसकी गणना दुनिया के महान शहरों में की जाती है। हम्पी मौजूदा कर्नाटक का हिस्सा है।
कृष्णदेव राय के शासनकाल  में विजयनगर साम्राज्य अपने सर्वोच्च  शिखर पर पहुँच गया था। वह एक सक्षम प्रशासक ही नहीं, बल्कि एक महान योद्धा भी थे। कृष्णदेव राय विद्वान, कवि, संगीतकार व एक दयालु राजा थे। कृष्णदेव राय अपनी प्रजा से बहुत प्यार करते थे और यहाँ तक कि अपने दुश्मनों का भी सम्मान किया करते थेृ। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान सभी युद्धों में जीत हासिल की थी।

कृष्णदेव, वीर नरसिंह के छोटे भाई थे, जो सुल्वा को पराजित करके सिंहासन पर बैठे थे। कृष्णदेव ने अपने भाई की मदद की और जल्द ही एक सक्षम राजा के रूप में अपनी योग्यता साबित कर दी। कृष्णदेव ने अपने सभी युद्धों में विजयी होकर राज्य को विस्तारित किया। उन्होंने उड़ीसा के राजा और बीजापुर के सुल्तान को भी हराया। कृष्णदेव ने दक्षिण भारत में मुस्लिम प्रभुत्व का अंत करने के लिए बहमनी शासक इस्माइल आदिल शाह को पराजित किया। उनका राज्य पूर्वी भारत कटक से पश्चिमी गोवा तक और दक्षिणी भारतीय महासागर से लेकर उत्तरी रायचूर डोब तक फैला हुआ था।
  एक के बाद एक लगातार हमले कर विदेशी मुस्लिमों ने भारत के उत्तर में अपनी जड़े जमा ली थीं। अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को एक बड़ी सेना देकर दक्षिण भारत जीतने के लिए भेजा। 1306 से 1315 ई. तक इसने दक्षिण में भारी विनाश किया। ऐसी विकट परिस्थिति में हरिहर और बुक्का राय नामक दो वीर भाइयों ने 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। इन दोनों को बलात् मुसलमान बना लिया गया था; पर माधवाचार्य ने इन्हें वापस हिन्दू धर्म में लाकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करायी। लगातार युद्धरत रहने के बाद भी यह राज्य विश्व के सर्वाधिक धनी और शक्तिशाली राज्यों में गिना जाता था। इस राज्य के सबसे प्रतापी राजा हुए कृष्णदेव राय। उनका राज्याभिषेक 8 अगस्त, 1509 को हुआ था। महाराजा कृष्णदेव राय हिन्दू परम्परा का पोषण करने वाले लोकप्रिय सम्राट थे। उन्होंने अपने राज्य में हिन्दू एकता को बढ़ावा दिया। वे स्वयं वैष्णव पन्थ को मानते थे; पर उनके राज्य में सब पन्थों के विद्वानों का आदर होता था। सबको अपने मत के अनुसार पूजा करने की छूट थी। उनके काल में भ्रमण करने आये विदेशी यात्रियों ने अपने वृत्तान्तों में विजयनगर साम्राज्य की भरपूर प्रशंसा की है। इनमें पुर्तगाली यात्री डोमिंगेज पेइज प्रमुख है

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Wednesday, March 20, 2019

महाऋषि अरविंद घोष का परिचय। Biography of Arvind Ghosh.

महाऋषि अरविंद घोष का परिचय





महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन 1872 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम डॉ. कृष्णघोष और माता का नाम स्वर्णलता था। अरविन्द को बचपन मे ही 7 वर्ष की आयु में शिक्षा लेने के लिए इंग्लैंड भेजा गया था, उन पर भारतीयों से मिलने पर प्रतिबन्ध था। फिर भी आगे चलकर अरविन्द एक क्रांतकारी, स्वतंत्रता सेनानी, महान भारतीय राजनैतिक, दार्शनिक तथा वैदिक पुस्तकों के व्याख्याता बने।

सन 1893 में अरविन्द भारत लौटे, वे बड़ौदा आकर एक कॉलेज में प्रधानाचार्य बने। उन्होंने बाद में ‘वंदेमातरम्’ पत्र का संपादन भी किया। उन्होंने युवाओ को ईमानदारी, अनुशासन, एकता, धैर्य और सहिष्णुता द्वारा निष्ठा करने को कहा।
देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अत: उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। सन 1903 में वे क्रांतकारी गतिविधियों में शामिल हो गये।अंग्रेजो ने भयभीत होकर सन 1908 में उन्हें और उनके भाई को अलीपुर जेल भेजा, यहाँ उन्हें दिव्य अनुभूति हुई और उन्होंने ”काशवाहिनी” नामक रचना की। जेल से छूटकर अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी’ और बंगला भाषा में ‘धर्म’ पत्रिकाओ का संपादन किया।
सक्रिय राजनीति में भाग लिया, इसके बाद उनकी रूचि गीता, उपनिषद और वेदों में हो गयी। भारतीय संस्कृति के बारे में महर्षि अरविन्द ने "फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर" तथा "ए डिफेंसऑफ़ इंडियन कल्चर" नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।उनका काव्य "सावित्री" अनमोल धरोहर है। सन 1926 से 1950 तक वे अरविन्द आश्रम में तपस्या और साधना में लींन रहे। यहाँ उन्होंने सभाओ और भाषणों से दूर रहकर मानव कल्याण के लिए चिंतन किया। वर्षो की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति "लाइफ डिवाइन" (दिव्य जीवन) प्रकाशित हुई, इसकी गणना विश्व की महान कृत्यों में की जाती है।
श्री अरविन्द अपने देश और संस्कृति के उत्थान के लिए सतत सक्रिय रहे, उनका पांडुचेरी स्थित आश्रम आज भी आध्यातिम्क ज्ञान का तीर्थस्थल माना जाता है, जहाँ विश्व के लोग आकर ज्ञान की प्यास को शांत करते है।


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Monday, March 18, 2019

बिन्दुसार : भारतीय शासक। Bindusara : Indian Ruler

बिन्दुसार Bindusara




बिन्दुसार महान भारतीय शासको में से एक है, ये मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र तथा सम्राट अशोक के पिता थे। चन्द्रगुप्त मौर्य एवं दुर्धरा के पुत्र बिन्दुसार ने काफी बड़े राज्य का शासन संपदा में प्राप्त किया। उन्होंने दक्षिण भारत की तरफ़ भी राज्य का विस्तार किया। चाणक्य उनके समय में भी प्रधानमन्त्री बनकर रहे। बिन्दुसार के शासन में तक्षशिला के लोगों ने दो बार विद्रोह किया। बिन्दुसार से संबंधित बहुत सी जानकारी भी उनकी मृत्यु के 100 से भी ज्यादा साल बाद इतिहासिक सूत्रों से पता की गयी थी। बिन्दुसार अपने पिता द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य पर शासन किया। पहली बार विद्रोह बिन्दुसार के बड़े पुत्र सुशीमा के कुप्रशासन के कारण हुआ। दूसरे विद्रोह का कारण अज्ञात है पर उसे बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने दबा दिया। चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक के जीवन की तुलना में बिन्दुसार का जीवन इतना प्रसिद्ध न रहा था।
इतिहास में बिन्दुसार को “पिता का पुत्र और पुत्र का पिता” कहा जाता है क्योकि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और सम्राट अशोक महान के पिता थे।

बिन्दुसार का जीवन : शासक बनने के पहले और बाद

उनके जीवन से संबंधित बहुत सी जानकारी जैन और बुद्ध महामानवो से प्राप्त की गयी थी, प्राचीन और मध्यकालीन सूत्रों ने बिन्दुसार के जीवन को अपने दस्तावेजो में भी विस्तृत रूप से नही दर्शाया गया है। जैन महामानव जैसे की हेमचन्द्र परिशिष्ट परवाना ने बिन्दुसार की मृत्यु के हजारो साल बाद उनके बारे में लिखा था। बाद के इतिहासकारो का ध्यान विशेष रूप से अशोका और चन्द्रगुप्त पर ही था।
बुद्ध जानकारों के लेखो में हमें अशोक के जीवन का अध्ययन करते समय बिन्दुसार के जीवन की झलक देखने को मिलती है। लेकिन बिन्दुसार के जीवन चरित्र को जानने के लिये वह जानकारी प्रयाप्त नही है। बिन्दुसार के ज्यादातर जीवन को बुद्ध महामानवो ने अपने लेखो में विस्तृत रूप से दर्शाया है। लेकिन बिन्दुसार के जीवन का वर्णन उनकी मृत्यु के हजारो साल बाद ही किया गया था। बिन्दुसार का जन्म मौर्य साम्राज्य के शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के बेटे के रूप में हुआ था। यही जानकारी हमें पुराण और महावंसा में देखने मिलती है। चन्द्रगुप्त सेलयूसिड्स के साथ वैवाहिक बंधन में बंधे हुए थे और इसी वजह से यह अटकलबाजी भी की गयी की बिन्दुसार की माता ग्रीक नही थी। लेकिन इस बात का कोई इतिहासिक दस्तावेज नही है। 12 वी शताब्दी के जैन लेखक हेमचन्द्र परिशिष्ठ परवाना के अनुसार बिन्दुसार की माता का नाम दुर्धरा था।




मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद मौर्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी बिन्दुसार ही बने थे। और साथ ही बिन्दुसार ने भारतीय इतिहास के महान शासक सम्राट अशोक को भी जन्म दिया था। उन्होंने दक्षिण भाग में अपने राज्य का विस्तार किया था। इहितासिक दस्तावेज यह दर्शाते है की बिन्दुसार की मृत्यु 270 BCE में हुई थी। उपिंदर सिंह के अनुसार बिन्दुसार की मृत्यु तक़रीबन 273 BCE में हुई थी। अलेन डेनीलोउ का मानना है की उनकी मृत्यु 274 BCE में हुई थी। 



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Sunday, March 17, 2019

अल्लूरी सीताराम राजू : भारतीय स्वाधीनता सेनानी। Alluri Sitarama Raju: Indian Freedom Fighter

अल्लूरी सीताराम राजू Alluri Sitarama Raju







अल्लूरी सीताराम राजू एक महान भारतीय क्रांतिकारी थे जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सन 1882 में मद्रास फारेस्ट एक्ट को मंजूरी दी गयी थी जिसके कारण जंगल में रहने वाले जनजाति के लोगो पर बहुत बड़ा संकट आ गया था। तब अल्लुरी सीताराम राजू ने एक संगठन बनाया। राजू के क्रांतिकारी साथियों में बीरैयादौरा का नाम भी आता है जिनका अपना अलग वनवासी संगठन था। इस संगठन ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध छ़ेड रखा था। अंग्रेज बीरैयादौरा को फांसी पर लटका देते लेकिन तब तक सीताराम राजू का संगठन बहुत बलशाली हो चुका था। 
पुलिस राजू से थरथर कांपती थी। वह ब्रिटिश सत्ता को खुलेआम चुनौती देता था। अंग्रेजी हुकूमत उनसे इतनी भयभीत थी कि 1922 में "असम राइफल्स" नाम का संगठन बनाया गया था केवल शहीद शिरोमणि श्री राजू को पकड़ने के लिए। तथा यही कारण है कि अंग्रेजों द्वारा उन्हें विशाखापत्तनम के जंगल मे एक पेड़ से बढ़कर कई गोलियों से उनकी हत्या की गई थी।

अल्लुरी सीताराम राजू का जन्म और स्थान

अल्लूरी सीताराम राजू के बारे में अलग अलग जगह से अलग अलग जानकारी मिली है। कुछ जगहों से मालूम पड़ता है की अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई 1897 में विशाखापत्तनम जिले के भीमुनिपत्नाम में हुआ था। लेकिन कुछ जगहों पर बताया गया है की उनका जन्म पन्द्रंगी गाव में हुआ था। कुछ स्रोतों में यह भी बताया गया है की उनका जन्म 4 जुलाई 1898 में हुआ था। जब राजू केवल 12 साल के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी थी। फिर उनके चाचा उन्हें नरसापुर ले गए और उसके बाद में वे कोव्वादा में रहते थे। बचपन से ही उन्हें पढाई में ज्यादा रुची नहीं थी लेकिन उन्हें वेदांत और योग में कुछ अधिक ही रुची थी।




अल्लुरी सीताराम राजू का अंग्रेजों से वगावत का कारण

जंगल में रहने वाले सभी लोग पोडू खेती करते थे। इस तरह की खेती में किसान कुछ समय एक जगह पर खेती करते थे और बाद में कुछ सालों तक उस जमीन को बंजर ही रखते थे। लेकिन नए कानून के आने से उन्हें इस तरह की खेती करने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। अल्लूरी सीताराम राजू बंगाल के अन्य क्रांतिकारियों से काफी प्रेरित हुए थे दुर्भाग्य से नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं लेकिन फिर भी वे हमारे लिए बेनाम-बेचेहरा बने हुए हैं। 
वनवासियों को आज़ादी प्यारी होती है और उन्हें किसी बंधन में जक़डा नहीं जा सकता है। इन्ही वनवासियों ने सबसे पहले जंगलों से ही विदेशी आक्रांताओं एवं दमनकारियों के विरुद्ध संघर्ष किया था। प्रकृति प्रेमी वनवासी क्रांतिकारियों की लंबी शृंखला हैं। कई परिदृश्य में छाऐ रहे और कई अनाम रहे। ऐसे ही महान क्रांतिकारी हुए हैं अल्लूरी सीताराम राजू। 
कोई भी सामान्य व्यक्ति मुखबिर या गद्दार नहीं बना। आंध्र के रम्पा क्षेत्र के सभी वनवासी राजू को भरसक आश्रय, आत्मसमर्थक देते रहते थे। स्वतंत्रता संग्राम की उस बेला में उन भोलेभाले बेघर, नंगे बदन और सर्वहारा समुदाय ने अंग्रेजों के क़ोडे खाकर भी राजू के ख़िलाफ़ मुख़बरी नहीं की।
सीताराम राजू गुरिल्ला युद्ध करते थे और नल्लईमल्लई पहा़डयों में छुप जाते थे। गोदावरी नदी के पास फैली पहा़डियों में राजू व उसके साथी युद्ध का अभ्यास करते और आक्रमण की रणनीति बनाते थे। ब्रिटिश अफसर राजू से लगातार मात खाते रहे। आंध्र की पुलिस के नाकाम होने के बाद केरल की मलाबार पुलिस के दस्ते राजू के लिए लगाए गए। मलाबार पुलिस फोर्स से राजू की कई मुठभ़ेडें हुईं लेकिन मलाबार दस्तों को मुंह की खानी प़डी। 
6 मई 1924 को राजू के दल का मुकाबला सुसज्जित असम राइफल्स से हुआ जिसमें उसके साथी शहीद हो गए लेकिन राजू बचा गया। ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस उसे पहा़डयों के चप्पेचप्पे में खोज रही थी। 7 मई 1924 को जब वह अकेला जंगल में भटक रहा था, तभी फोर्स के एक अफसर की नज़र राजू पर पड़ी गई। उसने राजू का छिपकर पीछा किया हालंकि वह राजू को पहचान नहीं सका था क्योंकि उस समय राजू ने लंबी द़ाढी ब़ढा ली थी। पुलिस दल ने राजू पर पीछे से गोली चलाई। राजू जख्मी होकर वहीं गिर पड़ो। तब राजू ने ख़ुद अपना परिचय देते हुए कहा कि ‘मैं ही सीताराम राजू हूं’ गिरफ्तारी के साथ ही यातनाएं शुरू हुई। अंततः इस महान क्रांतिकारी को नदी किनारे ही एक वृक्ष से बांधकर गोली मार दी गई।   


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Saturday, March 16, 2019

मातंगीनी हज़रा : भारतीय स्वतंत्रता सेनानी। Matangini Hazra: Indian Freedom Fighter.

मातंगीनी हज़रा Matangini Hazra



मातंगीनी हजरा एक भारतीय क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। उन्हें "गांधी बुरी" के रूप में जाना जाता है। वंदेमातरम के उद्धघोष उस समय विवादों में रहता था क्योंकि बहुत से लोग बोलना नही चाहते थे। 29 सितंबर, 1942 को तमलुक पुलिस स्टेशन (पूर्वी मिदनापुर जिले के) के सामने ब्रिटिश भारतीय पुलिस ने उन्हें मार डाला।
मातंगिनी हाजरा का जन्म पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण लगभग 10 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62वर्षीय त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया जिनकी पहली पत्नी मर चुकी थी और बच्चे भी थे। तथा जब वो 18 वर्ष की हुई तो उनके पति की मृत्यु हो गयी। इस पर भी दुर्भाग्य यह था कि वो निःसन्तान ही विधवा हो गयीं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उन्हें नही चाहते थे अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगीं। 

मातंगीनी हज़रा का स्वाधीनता संघर्ष

जब वो 62 वर्ष की हुई तो उन्हें यह समझ मे आने लगा कि हमारा देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है और पुरे भारत मे आजादी के संघर्ष चल रहे है अतः सन 1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में "सविनय अवज्ञा" स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी। वो जुलूस वालों कि मदत करती उन्हें पानी पिलाती तथा स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली। उन्हें गिरिफ्तार भी किया गया और कई किलोमीटर चलने की सजा भी मिली। फिर वो लगातार स्वाधीनता आंदोलनों में शामिल हुई। नामक कानून के विरोध में गांधी जी के आंदोलन के शामिल हुई और गिरफतारी भी हुई उसमे उन्हें लगभग 6 महीनों की सजा भी हुई।
फिर तो वो और भी बढ़-चढ़ कर आंदोलन में भाग लेने लगी तथा उन्हें बहुत बड़ा जन समर्थन हासिल हुआ। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उनके साथ बहुत बड़ी संख्या में लोग साथ चलने और कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे।


भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी सहभागिता 

भारत छोड़ो आंदोलन के एक भाग के रूप में, कांग्रेस के सदस्यों ने मिदनापुर जिले के विभिन्न पुलिस स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों को अपने अधिकार में लेने की योजना बनाई। इस जिले में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने और एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना में एक कदम था। मातंगिनी हजरा, जो 72 वर्ष की थी जब उस समय के वर्षों में, थाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से छह हजार समर्थकों की जुलूस, ज्यादातर महिला स्वयंसेवकों का नेतृत्व किया। जब जुलूस शहर केबाहरी इलाके में पहुंच गया। उनके एक हाथ मे तिरंगा झंडा था। जाहिर है उसने आगे कदम रखा था और पुलिस को अपील की थी कि वह भीड़ पर शूट न करें।
मातंगिनी ने तिरंगा झंडा अपने हाथ में ले लिया। लोग उनकी ललकार सुनकर फिर से एकत्र हो गए। अंग्रेज़ी सेना ने चेतावनी दी और फिर गोली चला दी। पहली गोलीमातंगिनी के पैर में लगी। जब वह फिर भी आगे बढ़ती गईं तो उनके हाथ को निशाना बनाया गया। लेकिन उन्होंने तिरंगा फिर भी नहीं छोड़ा। इस पर तीसरी गोली उनके सीने परमारी गई और इस तरह एक अज्ञात नारी 'भारत माता' के चरणों मे शहीद हो गई।

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Tuesday, March 12, 2019

हिन्दू सम्राट अजातशत्रु के वीरता कि कहानी। Story of hindu smrat Ajatshatru.


अजातशत्रु   AJATSHATRU


अजातशत्रु का शाब्दिक अर्थ होता है जिसका कोई शत्रु उत्पन्न न हुआ हो । अजातशत्रु मगध के एक प्रतापी सम्राट थे, कहा जाता है कि अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार को बंदी बना कर सत्ता हासिल की थी। उंन्होने कई राज्यों जैसे अंग, लिच्छवि, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। अजातशत्रु के समय में मगध मध्य भारत का एक बहुत की शक्तिशाली राज्य था, सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अजातशत्रु ने लगभग 32 वर्षों तक शासन किया और 461 ई.पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा वह मारा गया। वजिरा (या वजिराकुमारी) मगध साम्राज्य की साम्राज्ञी तथा अजातशत्रु की पत्नी और उदायिभद्र की माँ थी।




गंगा और सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र की स्थापना उसी ने की थी। उसका मन्त्री 'वस्सकार' एक कुशल राजनीतिज्ञ था, जिसने लिच्छवियों में फूट डालकर साम्राज्य को विस्तृत किया था। वह मगध का विस्तार पूर्वी राज्यों में लगभग-लगभग कर चुके थे, इसलिए अपना ध्यान उत्तर और पश्चिम पर केंद्रित करते हुए उन्होंने कोसल एवं पश्चिम में काशी तक को अपने राज्य में मिला लिया था। 
इसके पश्चात अजातशत्रु के वंश के पांच राजाओं ने मगध पर शासन किया। ऐसा विवरण मिलता है के लगभग सभी ने अपने अपने पिता की हत्या की थी। इसिलए इतिहास में इन्हें पितृहन्ता वंश के नाम से भी जाना जाता है।
ये उन हिन्दू राजाओं में है, जिन्होंने अपने कौशल से न सिर्फ़ शासन किया, बल्कि अपने कीर्तिमानों के लिए इतिहास में दर्ज भी हुए। 461 ई. पू. में अजातशत्रु की मृत्यु हो गयी।


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Monday, March 11, 2019

महाराजा रणजीत सिंह कि कहानी। Story of Maharaja Ranjeet singh.

महाराजा रणजीत सिंह

सिख शासन शुरुआत करने में महाराजा रणजीत सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने लगभग अठारहवी सदी के अंत और उन्नीसवी सदी में अपना शासन शुरू किया, उनका शासन पंजाब प्रान्त में फैला हुआ था और उन्होंने दल खालसा नामक संगठन का नेतृत्व किया था। पंजाब के लोक जीवन और लोक कथाओं में महाराजा रणजीत सिंह से सम्बन्धित अनेक कथाएं कही व सुनी जाती है। इसमें से अधिकांश कहानियां उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सभी धर्मो के प्रति सम्मान को लेकर प्रचलित है। उन्हें अपने जीवन में प्रजा का भरपूर प्यार मिला। अपने जीवन काल में ही वे अनेक लोक गाथाओं और जनश्रुतियों का केंद्र बन गये थे। रणजीत सिंह ने मिसलदार के रूप में अपना लोहा मनवा लिया था और अन्य मिसलदारों को हरा कर अपना राज्य बढ़ाना शुरू कर दिया था। पंजाब क्षेत्र के सभी इलाकों में उनका कब्ज़ा था।
रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ऐसा पहली बार हुआ था कि पश्तूनो पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया हो। उसके बाद वह पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार करने में सफल रहे।


महाराजा रणजीत सिंह का जन्म एवं शासन काल:


सन 1780 में गुजरांवाला, भारत अब के पाकिस्तान में सुकरचक्या मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ। वो 12 वर्ष के थे जब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया सन 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक शासन परिषद् ने की। इस परिषद् में इनकी माता- सास और दीवान लखपतराय शामिल थे। सन 1797 में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी जागीर का समस्त कार्यभार स्वयं संभाल लिया।
कुछ ज्ञाताओं के अनुसार कहा गया है कि 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह को पंजाब का महाराजा का ताज मिला। जिस दिन उनको महाराजा घोषित किया गया, वह दिन बैसाखी का था। उस समय वह 20 साल के थे। 

महाराजा रणजीत सिंह से जुड़ी लोक कथाये:

पहली कथा:
एक मुसलमान खुशनवीस ने अनेक वर्षो की साधना और श्रम से कुरान शरीफ की एक अत्यंत सुन्दर प्रति सोने और चाँदी से बनी स्याही से तैयार की। उस प्रति को लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबो के पास गया, सभी ने उसके कार्य और कला की प्रशंसा की परन्तु कोई भी उस प्रति को खरीदने के लिए तैयार न हुआ। खुशनवीस उस प्रति का जो भी मूल्य मांगता था, वह सभी को अपनी सामर्थ्य से अधिक लगता था।
निराश होकर खुशनवीस लाहौर आया और महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति से मिला, सेनापति ने उसके कार्य की बड़ी प्रशंसा की परन्तु इतना अधिक मूल्य देने में उसने खुद को असमर्थ पाया। महाराजा रणजीत सिंह ने भी यह बात सुनी और उस खुशनवीस को अपने पास बुलवाया, खुशनवीस ने कुरान शरीफ की वह प्रति महाराज को दिखाई।
महाराजा रणजीत सिंह ने बड़े सम्मान से उसे उठाकर अपने मस्तक में लगाया और वजीर को आज्ञा दी- "खुशनवीस को उतना धन दे दिया जाय, जितना वह चाहता है और कुरान शरीफ की इस प्रति को मेरे संग्रहालय में रख दिया जाय "।

दूसरी कथा:
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने 1845 में सिखों पर आक्रमण कर दिया। सिख सेना वीरतापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी। किन्तु सिख सेना के ही सेनापति ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण विजय के निकट पहुंचकर भी सिख सेना हार गई। अंग्रेजों ने सिखों से कोहिनूर हीरा ले लिया। लार्ड हार्डिंग ने इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा लंदन पहुंचा दिया, जो 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' द्वारा रानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया।


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Sunday, March 10, 2019

भारत के हिन्दू शासक : राजा हरिहर। Raja Harihar: Hindu Ruler.

राजा हरिहर Raja Harihar




राजा हरिहर को विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के लिए जाना जाता है, जिसका खूब विरोध हुआ था। यहां तक कि इस हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के बाद से ही इस पर लगातार आक्रमण भी हुए, लेकिन इस साम्राज्य के राजाओं ने इसका कड़ा जवाब दिया। मुग़ल  उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में समर्थ रहे। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है।दक्षिण भारत के नरेश मुगल सल्तनत विजयनगर के दक्षिण प्रवाह को रोकने में बहुत असफल रहे।
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना राजा हरिहर प्रथम ने 1336 में की थी। हरिहर प्रथम को ‘दो समुद्रों का अधिपति’ कहा जाता था। अनेगुंडी के स्थान पर इस साम्राज्य का प्रसिद्ध नगर विजयनगर बनाया गया था, जो राज्य की राजधानी थी।बादामी, उदयगिरि एवं गूटी में बेहद शक्तिशाली दुर्ग बनाए गए थे, हरिहर ने होयसल राज्य को अपने राज्य में मिलाकर कदम्ब एवं मदुरा पर विजय प्राप्त की थी।
हरिहरजी के निधन के बाद ईसवी सन् १३५६ से १३७७ तक सम्राट बुक्करायजी ने राज किया । सम्राट बुक्करायजी के सुपुत्र कंपण्णा ने मदुरा के सुलतान के साथ किए घमासान युद्ध में सुलतान मारा गया और दक्षिण भारत बुक्करायजी के साम्राज्य में आ गया । बुक्करायजी एक समर्थ राजा थे । सम्राट बुक्करायजी ने बहमनी सुलतान से दो बार युद्ध किया । मुहम्मद-१ के कार्यकाल में पहला एवं मुजाहिद के कार्यकाल में दूसरा युद्ध किया । उन्होंने गोवा प्रांत को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था । उस समय के मलवार और श्रीलंका के राजाओं ने उनकी सार्वभौमिकता को स्वीकार कर उनसे मित्रवत संबंध रखे ।

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Saturday, March 9, 2019

शम्भाजी राजे : परमवीर हिन्दू मराठा योद्धा और सम्राट । Story of Sambhaji Raje in hindi.

शम्भाजी राजे




शम्भाजी (1657-1689) मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी जेष्ठ पुत्र। उस समय मराठाओं के सबसे प्रबल शत्रु मुगल बादशाह औरंगजेब के बीजापुर और गोलकुण्डा का शासन हिन्दुस्तान से समाप्त करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। संभाजी राजे अपनी शौर्यता के लिये काफी प्रसिद्ध थे। संभाजी महाराज ने अपने कम समय के शासन काल में 168 युद्ध किये और इसमे एक प्रमुख बात ये थी कि उनकी सेना एक भी युद्ध में पराभूत नहीं हुई। उनके पराक्रम की वजह से परेशान हो कर दिल्ली के बादशाह औरंगजेब ने कसम खायी थी के जब तक छत्रपती संभाजी पकडे नहीं जायेंगे, वो अपना किमोंश सर पर नहीं चढ़ाएगा।
हिन्दुस्थान में हिन्दू साम्राज्य का गौरवपूर्ण स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन बहुत वीरतापूर्ण कार्यो के लिए याद किया जाता है तथा उनको "छावा" कहा जाता था जिसका मराठी में अर्थ है शावक यानी शेर का बच्चा । 


छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी संभाजी महाराज ने हिन्दू स्वराज को अक्षुण्ण रखा था। संभाजी महाराज का जीवन एवं उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब के साथ तमाम मुगल सेना थर्राने लगती थी। संभाजी के घोड़े की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे।  वैसे शूर-वीरता के साथ निडरता का वरदान भी संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से मानों विरासत में प्राप्त हुआ था। राजपूत वीर राजा जयसिंह के कहने पर, उन पर भरोसा रखते हुए जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पहुंचे थे तो दूरदृष्टि रखते हुए वे अपने पुत्र संभाजी को भी साथ लेकर पहुंचे थे। कपट के चलते औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और दोनों पिता-पुत्र को तहखाने में बंद कर दिया। फिर भी शिवाजी ने कूटनीति के चलते औरंगजेब से अपनी रिहाई करवा ली, उस समय संभाजी अपने पिता के साथ रिहाई के साक्षी बने थे।
संभाजी महाराज का औरंगजेब की छल-कपट की नीति से बचपन में जो वास्ता पड़ा, दुर्भाग्यवश वह जीवन के अंत तक बना रहा और यही इतिहास बन गया। छत्रपति शिवाजी की रक्षा नीति के अनुसार उनके राज्य का किला जीतने की लड़ाई लड़ने के लिए मुगलों को कम से कम एक वर्ष तक अवश्य जूझना पड़ता। औरंगजेब जानता था कि इस हिसाब से तो सभी किले जीतने में 360 वर्ष लग जाएंगे। शिवाजी के बाद संभाजी महाराज की वीरता भी औंरगजेब के लिए अत्यधिक अचरज का कारण बनी रही। उन्होंने अपने पिता की जुझारु एवं दूरदर्शी रक्षा नीति को चार-चांद लगाने का कार्य उस समय कर दिखाया कि जब उनका रामसेज का किला औरंगजेब को लगातार पांच वर्षों तक टक्कर देता रहा। 
इसके अलावा संभाजी महाराज ने औरंगजेब के कब्जे वाले औरंगाबाद से लेकर विदर्भ तक सभी सूबों से लगान वसूलने की शुरुआत कर दी जिससे औरंगजेब इस कदर बौखला गया कि संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए वह स्वयं दक्खन पहुँच गया।
उसने संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र शाहजादे आजम को तय किया। आजम ने कोल्हापुर संभाग में संभाजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उनकी तरफ से आजम का मुकाबला करने के लिए सेनापति हमीबीर राव मोहिते को भेजा गया। उन्होंने आजम की सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया औरंगजेब को स्वीकार करना पड़ा कि संभाजी पर विजय पाना तो दूर, उन्हें परास्त करने के लिए प्रभावी नीति चुनौती है। युद्ध में हार का मुंह देखने पर औरंगजेब इतना हताश हो गया कि बारह हजार घुड़सवारों से अपने साम्राज्य की रक्षा करने का दावा उसे खारिज करना पड़ा। संभाजी महाराज पर नियंत्रण के लिए उसने तीन लाख घुड़सवार और चार लाख पैदल सैनिकों की फौज लगा दी। लेकिन वीर मराठों और गुरिल्ला युद्ध के कारण मुगल सेना हर बार विफल होती गई।
औरंगजेब के मन में व्याप्त भय का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब बीजापुर के कुछ चुनिंदा मौलवी औरंगजेब के पास इस्लाम और मजहबी पैगाम के आधार पर सुलह करने पहुँचे तो उसने स्पष्ट कर दिया कि वह कुरान के आधार पर बीजापुर के आदिलशाह से कभी भी सुलह कर सकता है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी चिंता दक्खिन में संभाजी महाराज हैं जिनका वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा था। औरंगजेब ने बार-बार पराजय के बाद भी संभाजी से महाराज से युद्ध जारी रखा। इसी दौरान कोंकण संभाग के संगमेश्वर के निकट संभाजी महाराज के 400 सैनिकों को मुकर्रबखान के 3000 सैनिकों ने घेर लिया और उनके बीच भीषण युद्ध छिड़ गया। 
इस युद्ध के बाद राजधानी रायगढ़ में जाने के इरादे से संभाजी महाराज अपने जांबाज सैनिकों को लेकर बड़ी संख्या में मुगल सेना पर टूट पड़े। मुगल सेना द्वारा घेरे जाने पर भी संभाजी महाराज ने बड़ी वीरता के साथ उनका घेरा तोड़कर निकलने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने रायगढ़ जाने की बजाय निकट इलाके में ही ठहरने का निर्णय लिया। मुकर्रबखान इसी सोच और हताशा में था कि संभाजी इस बार भी उनकी पकड़ से निकलकर रायगढ़ पहुँचने में सफल हो गए, लेकिन इसी दौरान बड़ी गड़बड़ हो गई कि एक मुखबिर ने मुगलों को सूचित कर दिया कि संभाजी रायगढ़ की बजाय एक हवेली में ठहरे हुए हैं। यह बात आग की तरह औरंगजेब और उसके पुत्रों तक पहुँच गई कि संभाजी एक हवेली में ठहरे हुए हैं। जो कार्य औरंगजेब और उसकी शक्तिशाली सेना नहीं कर सकी, वह कार्य एक मुखबिर ने कर दिया।
इसके बाद भारी संख्या में सैनिकों के साथ मुगल सेना ने हवेली की ओर कूच कर उसे चारों तरफ से घेर लिया। संभाजी को हिरासत में ले लिया गया, 15 फरवरी, 1689 का यह काला दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज है। संभाजी की अचानक हुई गिरफ्तारी को लेकर औरंगजेब और पूरी मुगलिया सेना हैरान थी। संभाजी का भय इतना ज्यादा था कि पकड़े जाने के बाद भी उन्हें लोहे की जंजीरों से बांधा गया। बेडि़यों में जकड़ कर ही उन्हें औरंगजेब के पास ले जाया गया। इससे पूर्व उन्हें ऊंट की सवारी कराकर काफी प्रताडि़त किया गया।
संभाजी महाराज को जब 'दिवान-ए-खास' में औरंगजेब के सामने पेश किया गया औरंगजेब के सामने संभाजी राजे और कवराज बंदी अवस्था में खड़े थे। औरंगजेब से आज तक किसीकी हिम्मत नहीं हुई थी नजर से नजर मिलाने की। लेकिन संभाजी राजे सर बिना नीचे झुकाए उसके नजर से नजर मिला रहे थे ।  इस पर संभाजी के साथ कैद कवि कलश ने कहा-'हे राजन, तुव तप तेज निहार के तखत त्यजो अवरंग।'
"आखे निकाल दो इस काफर कि " औरंगजेब गुस्से से बोला और उसने कपडे से बंधा हुआ मुह खोलने का आदेश दिया ।
" सुवर् के औलाद, हम मराठा शेर जैसे जीते है और शेर जैसे मारते है ।" मुह के ऊपर का कपड़ा खुलते हुए गुस्से से बोले । औरंगजेब का आज तक ऐसा अपमान किसीने नहीं किया था । औरंगजेब गुस्से से लाल हो गया ।
"आखे निकालने से पहले इसकी जबान काट डालो और ये सजा पहले इस कवी पर आजमाओ " औरंगजेब निकल गया पर जाने से पहले उसने एक धूर्त चाल चली । उसे लगा जब कविराज पर ये सजा आजमाई जाएगी तब संभाजी राजे का दिल टूट जायेगा और स्वयं के प्राणों की रक्षा हेतु वह इस्लाम कबूल कर लेंगे, लेकिन औरंगजेब को मालूम नहीं था ये शेर का छावा था अपने धर्म पर मर मिटने वाला । उसे मृत्यु का भय नहीं था ।
कवी राज ने आखरी बार संभाजी राजे को देखा , उन्हें ज्ञात था कि अब ये आँखें कभी वापस अपने प्राणप्रिय दोस्त को नहीं देखने वाली थी ! उनके मुख से आवाज निकली "मुजरा राजे " इस जबान से वापस कभी उनको पुकारा नहीं जानेवाला था । कविराज की पहले जबान काटी गई । आँखें निकाली गयी । यही सजा बाद में संभाजी राजे को दी गयी ।
इतनी कठिन सजा भुगतने के बाद भी दोनों के मुख से एक भी आवाज नहीं निकली । यह देखकर इखलास खान भड़क गया । उसने नए जल्लाद की फ़ौज बुलाई और उन्हें आदेश दिया 
" देखते क्या हो उखाड़ दो इन कुत्तो की खाल और डालो नमक का पानी इन काफिरों पर" इखलास चिल्लाया । जल्लाद आगे बढे । दोनो की खाल उखड़ी गई और बाद में उसके ऊपर नमक का पानी डाला गया । 
इस घटना के बाद से ही संभाजी ने अन्न-जल का त्याग कर दिया। उसके बाद सतारा जिले के तुलापुर में भीमा-इन्द्रायनी नदी के किनारे संभाजी महाराज को लाकर उन्हें लगातार प्रताडि़त किया जाता रहा और बार-बार उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव डाला जाने लगा। आखिर में उनके नहीं मानने पर संभाजी का वध करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए 11 मार्च, 1689 का दिन तय किया गया क्योंकि उसके ठीक दूसरे दिन हिन्दू वर्ष प्रतिपदा थी। औरंगजेब चाहता था कि संभाजी महाराज की मृत्यु के कारण हिन्दू जनता वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर शोक मनाये।
उसी दिन सुबह दस बजे संभाजी महाराज और कवि को एक साथ गांव की चौपाल पर ले जाया गया। पहले कवि कलश की गर्दन काटी गई। उसके बाद संभाजी के हाथ-पांव तोड़े गए, उनकी गर्दन काट कर उसे पूरे बाजार में जुलूस की तरह निकाला गया।
एक बात तो स्पष्ट है कि जो कार्य औरंगजेब और उसकी सेना आठ वर्षों में नहीं कर सके, वह कार्य एक भेदिये ने कर दिखाया। औरंगजेब ने छल से संभाजी महाराज का वध तो कर दिया, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। संभाजी ने अपने प्राणों का बलिदान कर हिन्दू धर्म की रक्षा की और अपने साहस व धैर्य का परिचय दिया। उन्होंने औरंगजेब को सदा के लिए पराजित कर दिया।

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Friday, March 8, 2019

पुष्यमित्र शुंग कि जीवन गाथा। Story of indian ruler Pushyamitra Shubha.


पुष्‍यमित्र शुंग



सनातन धर्म ग्रंथो में भी शुंग उपनाम के कई ब्राह्मण का उल्लेख मिलता है, वास्तव में पुष्यमित्र शुंग के कारण चीन में भी शुंग जाती का उदय हुआ है ऐसा कहा जाता है। बौद्ध धर्म को प्रचारित और प्रसारित करने में भिक्षुओं से ज्यादा योगदान सम्राट अशोक का था। चंद्रगुप्त मौर्य ने जहां चाणक्य के सान्निध्य में सनातन हिन्दू धर्म को संगठित कर राजधर्म लागू किया था वहीं उसके पोते सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात बौद्ध धर्म अपना लिया। पुष्यमित्रशुंग ब्राह्मण राजवंश के महान राजा थे जिनका राज गौ,ब्राह्मण और सनातन धर्म के लिए सवर्ण युग माना जाता है।

 

बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अशोक महान ने राजपाट नहीं छोड़ा बल्कि एक बौद्ध सम्राट के रूप में लगभग 20 वर्ष तक शासन किया। उन्होंने अपने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। पुष्यमित्र शुंग को ब्राह्मण ही माना है पर कुछ लोग षड्यंत्र के वशीभूत होकर मनमानी ढंग सेइन्हें शुद्र साबित करने का भरपूर कोशिश कर रहे है आज जिसका कोई ठोस प्रमाण नही है।

जब भारत में नौवां बौद्ध शासक वृहद्रथ राज कर रहा था, तब ग्रीक राजा मीनेंडर अपने सहयोगी डेमेट्रियस (दिमित्र) के साथ युद्ध करता हुआ सिंधु नदी के पास तक पहुंच चुका था। सिंधु के पार उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस मीनेंडर या मिनिंदर को बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा जाता है।
कहते हैं कि मिलिंद की गति‍विधि की जानकारी बौद्ध सम्राट वृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग को लगी। पुष्यमित्र ने सम्राट वृहद्रथ से सीमावर्ती मठों की तलाशी की आज्ञा मांगी, परंतु बौद्ध सम्राट वृहद्रथ ने यह कहकर मना कर दिया कि तुम्हें व्यर्थ का संदेह है। लेकिन पुष्यमित्र शुंग ने राजाज्ञा का पालन किए बिना मठों की तलाशी ली और सभी विद्रोहियों को पकड़ लिया और भारी मात्रा में हथियार जब्त कर लिए, परंतु वृहद्रथ को आज्ञा का उल्लंघन अच्छा नहीं लगा।  हालांकि इस बात से कई लोग इनकार करते हैं।

कहते हैं कि पुष्यमित्र शुंग जब वापस राजधानी पहुंचा तब सम्राट वृहद्रथ सेना परेड लेकर जांच कर रहा था। उसी दौरान पुष्यमित्र शुंग और वृहद्रथ में कहासुनी हो गई। कहासुनी इतनी बढ़ी कि वृहद्रथ ने तलवार निकालकर पुष्यमित्र शुंग की हत्या करना चाही, लेकिन सेना को वृहद्रथ से ज्यादा पुष्यमित्र शुंग पर भरोसा था। पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ का वध कर दिया और फिर वह खुद सम्राट बन गया। इस दौरान सीमा पर मिलिंद ने आक्रमण कर दिया।

फिर पुष्यमित्र ने अपनी सेना का गठन किया और भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय सैनिकों के सामने ग्रीक सैनिकों की एक न चली। अंतत: पुष्‍यमित्र शुंग की सेना ने ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया।

कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है कि पुष्यमित्र ने बौद्धों को सताया था, लेकिन क्या यह पूरा सत्य है? मिलिंद पंजाब पर राज्य करने वाले यवन राजाओं में सबसे उल्लेखनीय राजा था। उसने अपनी सीमा का स्वात घाटी से मथुरा तक विस्तार कर लिया था। अब वह पाटलीपुत्र पर भी आक्रमण करना चाहता था। उससे लड़ाई के चलते ही पुष्यमित्रशुंग को इतिहास में अच्छा नहीं माना गया।

पुष्यमित्र का शासनकाल चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण किए, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र चारों तरफ से यवनों, शाक्यों आदि सम्राटों से घिरा हुआ था। फिर भी राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला। पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई.पू.) तक राज्य किया। इसके बाद उसके राज्य का जब पतन हो गया, तो फिर से बौद्धों का उदय हुआ। हालांकि पुष्यमित्र शुंग के बाद 9 और शासक हुए- अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, अन्ध्रक, तीन अज्ञात शासक, भागवत, देवभूति




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Wednesday, March 6, 2019

बुल्ले शाह : एक धार्मिक प्रवित्ति के सूफी संत। Bulle Shah: Sufi santa of a commonwealth religious

बुल्ले शाह Bulle Shah:

सय्यद अब्दुल्ला शाह क़ादरी जिन्हें बुल्ले शाह के नाम से भी जाना जाता है एक पंजाबी दार्शनिक एवं संत थे। बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था। बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भीगहरा अध्ययन किया था। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर लीकि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। पर बुल्ले को तलाश थी इकऐसे मुरशद की जो उसे खुदा से मिला दे। शायद यही कारण है कि उन्हें आधुनिक इतिहास से दूर रखा गया है।
बुल्ले शाह की कविता "बुल्ला की जाना" को रब्बी शेरगिल ने एक रॉक गानेके तौर पर गाया। इनकी कविता का प्रयोग पाकिस्तानी फ़िल्म "ख़ुदा के लिये" के गाने"बन्दया हो" में किया गया था। इनकी कविता का प्रयोग बॉलीवुड फ़िल्म रॉकस्टार के गाने "कतया करूँ" में किया गया था। फ़िल्म दिल से के गाने "छइयाँ छइयाँ" के बोल इनकी काफ़ी "तेरेइश्कनचाया कर थैया थैया" पर आधारित थे।


बुल्ले शाह का जीवन Life of Bulle Shah:

इनके जीवन में अलग अलग मतभेद है। इनका जन्म 1680 में उच गीलानियो में हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था। वह आजीविका की खोज में गीलानिया छोड़ कर परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के एक गाँव में बस गए। उस समय बुल्ले शाह की आयु छे वर्ष की थी, बुल्ले शाह जीवन भर कसूर में ही रहे। पिता के नेक जीवन के कारण उन्हें दरवेश कहकर आदर दिया जाता था। पिता के ऐसे व्यक्तित्व का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा।
इनके पिता मस्जिद के मौलवी थे, वे सैयद जाति से सम्बन्ध रखते थे। इनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई। इनके उस्ताद हजरत गुलाम मुर्तजा सरीखे ख्यातनामा थे। अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया। उनके पहले आध्यात्मिक गुरु संत सूफी मुर्शिद शाह इनायत अली थे, वे लाहौर से थे। बुल्ले शाह को मुर्शिद से आध्यामिक ज्ञान रूपी खाजने की प्राप्ति हुई और उन्हें उनकी करिश्माई ताकतों के कारण पहचाना जाता था। आगे चलकर इनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया। प्यार से इन्हें साईं बुल्ले शाह या बुल्ला कहते। 
परमात्मा की दर्शन की तड़प इन्हें फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई। हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था, वे जाति से अराई थे। अराई लोग खेती-बाड़ी, बागबानी और साग-सब्जी की खेती करते थे। बुल्ले शाह के परिवार वाले इस बात से दुखी थे कि बुल्ले शाह ने निम्न जाति के इनायत शाह को अपना गुरु बनाया है। उन्होंने समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए। 
बुल्ले शाह का असली नाम अब्दुल्ला शाह था। उन्होंने शुरुआतीशिक्षा अपने पिता से ग्रहण की थी और उच्च शिक्षा क़सूर में ख़्वाजा ग़ुलाममुर्तज़ा से ली थी। पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा सेही शिक्षा ली थी उनके सूफ़ी गुरु इनायत शाह थे। बुल्ले शाह की मृत्यु1757 से 1759 के बीच क़सूर में हुई थी। बुल्ले शाह के बहुत से परिवारजनों ने उनका शाह इनायत का चेला बनने का विरोध किया था क्योंकिबुल्ले शाह का परिवार पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज होने की वजह से ऊँचीसैय्यद जात का था जबकि शाह इनायत जात से आराइन थे, जिन्हें निचलीजात माना जाता था। लेकिन बुल्ले शाह इस विरोध के बावजूद शाह इनायतसे जुड़े रहे और अपनी एक कविता में उन्होंने कहा:
संस्कृति पर प्रभाव
2007 में इनके देहांत की 250वीं वर्षगाँठ मनाने के लिये क़सूर शहर में एकलाख से अधिक लोग एकत्रित हुए थे।
सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद भी बाबा बुल्ले शाह की रचनाएँ अमर बनी हुई हैं।आधुनिक समय के कई कलाकारों ने कई आधुनिक रूपों में भी उनकीरचनाओं को प्रस्तुत किया है।
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Tuesday, March 5, 2019

खुदीराम बोस:सबसे कम उम्र का शहीद क्रांतिकारी। Khudiram Bose: youngest martyr revolutionary.

खुदीराम बोस Khudiram Boss:


खुदीराम बोस आज़ादी के लिए शहीद होने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे जिन्हें 18 वर्ष के उम्र में 11 अगस्त 1908 को फाँसी की सज़ा दे दी गयी थी। आज जिस हिंदुस्तान में हम आज़ादी के साथ रह रहे है उस आज़ादी के लिए अनेको महापुरुषों ने अपने जीवन की आहूति दी है परंतु शायद आज़ादी के बाद के इतिहास कारो ने केवल कुछ ही लोगो की महिमा का बखान किया इसमे उनका स्वार्थ हो सकता है परंतु उन महापुरुषों के बारे में जानने का अधिकार सभी लोगो को और आने वाली पीढ़ियों को है।
खुदीराम बोस के जन्म 18 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर नामक जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रिलोकीनाथ बोस तथा माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था।

खुदीराम बोस के क्रांतिकारी बनने की वजह Reason of Khudiram boss becoming revolutionary:

खुदीराम बोस बचपन से ही अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे आंदोलन में हिस्सा लेने लगे थे , उस समय भारत की आज़ादी के कई संघर्ष चल रहे थे। उन आज़ादी के संघर्षों से प्रभावित खुदीराम बोस ने क्रांतिकारी बनने का निर्णय किया जब 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया तो पूरे देश के इसका विद्रोह हुआ तब खुदीराम बोस ने अत्येन्द्र बोस की अगवानी में क्रांतिकारी बन गए। 9वी की परीक्षा के बाद वो रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और आज़ादी के नारे लगाने लगे और बंदेमातरम के पर्चे बाटने लगे।

खुदीराम बोस के क्रांतिकारी कारनामे Revolutionary activity of Khudiram Boss:

खुदीराम बोस कई बार पुलिस के द्वारा पकड़े गए परंतु कम उम्र के कारण उनको छोड़ दिया जाता था। परंतु जब उनका नाम नायरायनगड रेलवे स्टेशन पर में आया उसके बाद उनको एक बहुत जरूरी काम दिया गया वो था अंग्रेजी ऑफिसर किंग्सफोर्ड को मारने का काम। इस काम के लिए वो बिहार के मुज्जपरपुर जिले में गए उनके साथ प्रफुल चंद्र चाकी भी थे।
एक दिन मौका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया। इस घटना में अंग्रेज अधिकारी की पत्नी और बेटी मारी गई लेकिन वह बच गया। घटना के बाद खुदीराम बोस और प्रफुल चंद वहां से 25 मील भागकर एक स्टेशन पर पहुंचे। लेकिन वहीं पुलिस को दोनो पर शक हो गया।
उनको चारो ओर से घेर लिया गया। प्रफुल चंद ने खुद को गोली मार स्टेशन पर शहादत दे दी। थोड़ी देर बाद खुदीराम को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उनके खिलाफ 5 दिन तक मुकदमा चल  8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मृत्य दंड की सजा सुनाई गई।  11 अगस्त 1908 को इस क्रांतिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया आजादी के संघर्ष में यह किसी क्रांतिकारी को पहली फांसी थी।



तो अपने क्रांतिकारीओं और महापुरुषों के बारे में जानकारी प्राप्त करे औऱ लोगो को शेयर करे। साथ ही अपने सुझाव अवश्य दे।


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Saturday, March 2, 2019

शक वंश का इतिहास। History of Shak Vansh.

शक वंश Shak Vansh:


शक प्राचीन आर्यों के वैदिक कालीन सम्बन्धी रहे हैं जो शाकल द्वीप पर बसने के कारण शाक अथवा शक कहलाये. भारतीय पुराण इतिहास के अनुसार शक्तिशाली राजा सगर द्वारा देश निकाले गए थे। हूणों द्वारा शकों को शाकल द्वीप क्षेत्र से भी खदेड़ दिया गया था। जिसके परिणाम स्वरुप शकों का कई क्षेत्रों में बिखराव हुआ। शक और शाक्य वंश में अंतर है, शाक्य वंश गौतम बुद्ध से जुड़ा है, जो गौतम गोत्र के क्षत्रिय थे, इनका छेत्र नेपाल के पास था। पुराणों में शक वंश की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। उन्हीं के वंशज शक कहलाए। माना जाता है कि आजादी के बाद जब इतिहास लिखा गया तो हिन्दू विजयों और प्रतीकों को जानबूझकर हाशिये पर धकेला गया और उन लोगों का महिमामंडन ज्यादा किया गया जिन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां की संस्कृति और सभ्यता को लगभग तहस नहस कर दिया। 
भारत के अंग्रेजों से आज़ादी के पश्चात इन्ही के पंचांग शक संवत को भारतीय राष्ट्रीय कलेंडर बनाया गया है

शक वंश का साम्राज्य:

भारत के उस कठिन समय के शक्तिशाली गण मालवगण के अधिपति विक्रमादित्य ने यौद्धेय गण और बाकी गणों को संघटित कर एक बड़ी सेना खड़ी की। अत्यंत निपुण सेनानी विक्रमादित्य के नेतृत्व में इस संघटित भारतीय सेना की शकों से भीषण लड़ाई हुई और एक के बाद एक युद्ध जीतते हुए विक्रम की सेना आगे बढ़ती गई और उन्होंने शकों को हर जगह से उखाड़ फेंका। शक सत्ता से बेदखल हो गए लेकिन उनके कुछ समूह भारतीय धर्म और संस्कृति में ही घुल मिल कर रहने लगे।  आधुनिक विद्वनों का मत है कि मध्य एशिया पहले शकद्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। यूनानी इस देश को 'सीरिया' कहते थे। उसी मध्य एशिया के रहनेवाला शक कहे जाते है। एक समय यह जाति बड़ी प्रतापशालिनी हो गई थी। ईसा से दो सौ वर्ष पहले इसने मथुरा और महाराष्ट्र पर अपना अधिकार कर लिया था। ये लोग अपने को देवपुत्र कहते थे। इन्होंने १९० वर्ष तक भारत पर राज्य किया था। इनमें कनिष्क और हविष्क आदि बड़े बड़े प्रतापशाली राजा हुए हैं।
भारत के पश्चिमोत्तर भाग कापीसा और गांधार में यवनों के कारण ठहर न सके और बोलन घाटी पार कर भारत में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् उन्होंने पुष्कलावती एवं तक्षशिला पर अधिकार कर लिया और वहाँ से यवन हट गए। 72 ई. पू. शकों का प्रतापी नेता मोअस उत्तर पश्चिमांत के प्रदेशों का शासक था। उसने महाराजाधिराज महाराज की उपाधि धारण की जो उसकी मुद्राओं पर अंकित है। उसी ने अपने अधीन क्षत्रपों की नियुक्ति की जो तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र और उज्जैन में शासन करते थे। कालांतर में ये स्वतंत्र हो गए। शक विदेशी समझे जाते थे यद्यपि उन्होंने शैव मत को स्वीकार कर किया था। मालव जन ने विक्रमादित्य के नेतृत्व में मालवा से शकों का राज्य समाप्त कर दिया और इस विजय के स्मारक रूप में विक्रम संवत् का प्रचलन किया जो आज भी हिंदुओं के धार्मिक कार्यों में व्यवहृत है। शकों के अन्य राज्यों का शकारि विक्रमादित्य गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय ने समाप्त करके एकच्छत्र राज्य स्थापित किया। शकों को भी अन्य विदेशी जातियों की भाँति भारतीय समाज ने आत्मसात् कर लिया। शकों की प्रारंभिक विजयों का स्मारक शक संवत् आज तक प्रचलित है।

शक वंश का विक्रमादित्य के साथ टकराव:

विक्रमादित्य के भारतीय वीरता के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है जिसे कभी उद्घाटित नहीं किया ग्या क्योंकि वह हिन्दू अस्मिता और गौरव से जुड़ा हुआ था। जब विक्रमादित्य ने शकों को समूल से हराकर उन्हें देश से बाहर धकेल दिया था जब उन्हें इस विजय के बाद शाकारी उपाधी से सम्मानीत किया गया था। इस विजय की याद में ही महान विक्रमादित्य ने एक संवत शुरू किया था जिसे आज हम विक्रम संवत कहते हैं। दरअसल कहानी कुछ यूं है कि ईसा के 100 वर्ष पहले भारत पर शकों के आक्रमण की शुरुआत हुई। ग्रीक प्रदेश बैक्ट्रिया को जीतने के बाद शकों ने भारत पर आक्रमण कर दिया। संपूर्ण भारत में शक तेजी से तूफान की तरह फैल गए थे और उन्होंने लगभग संपूर्णा भारत पर कब्जा ही कर लिया था। सिंध से लेकर वे दक्षिण के आंध्र तक चले गए थे।
महाजनपदों में विभाजित भारत के अधिकतर हिस्से शकों के अधिन हो गए थे। सिंध, पंजाब, कश्मीर, अफगान, राजस्थान और गुजरात में तो इनकी सत्ता मजबूत हो गई थी। साथ ही उत्तर और मध्य भारत के कुछ हिस्से भी इनके अधीन हो चले थे। ऐसे में इतिहास के पटल पर एक शक्तिशाली राजा का प्रादुर्भाव हुआ, मालवपति गंधर्वसेन पुत्र विक्रमादित्य का।



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Wednesday, February 27, 2019

बप्पा रावल का इतिहास। History of Bappa Rawal.

बप्पा रावल Bappa Rawal:



बप्पा रावल एक ऐसा महान भारतीय हिन्दू शासक जिसे भारतीय इतिहास में वो जगह नही मिली जिसके वो हकदार थे क्योंकि इतिहास को बारीकी से पढ़ने वालों को तो शायद पढाया जाता हो परन्तु हमारी पाठ्यक्रम में स्थान नही दिया जाता।
बप्पा रावल मेवाड़ के गुहिल राजवंश के संस्थापक थे। इन्हें सिसोदिया राजवंश भी कहा जाता है जिसमे आगे चल के महान शासक राणा कुम्भा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे वीर और पराक्रमी हुए। पप्पा इनका मूल नाम नही था अपितु एक आदरसूचक शब्द है जो पिता या महान व्यक्ति के लिए स्तेमाल किया जाता है। इन्ही के नाम पर रावलपिंडी नामक सहर है जो अब के पाकिस्तान में है।

बप्पा रावल का अरब और स्लामिक हमलावर से भिडंत:

जब कासिम सिंध से आगे बढ़ा तो अच्छे-अच्छे राजाओं की हालत खराब हो गयी थी. कासिम लगातार हिन्दू औरतों की इज्जत लूट रहा था. बच्चों का कत्लेआम कर रहा था लेकिन कोई भी हिन्दुतानी राजा इसकी टक्कर नहीं ले पा रहा था. तब यह खबर शिव के भक्त और राजस्थान के हिन्दू शेर योद्धा बप्पारावल तक पहुंची तो बप्पा ने कासिम को ऐसा सबक सिखाया कि . सालों तक भारत में कोई विदेशी आक्रमणकारी भारत की तरफ आँख नहीं उठा पाया।
यह एतिहासिक कहानी उन दिनों की है जब भारत पर बाहरी आक्रमणकारी लोगों ने हमला शुरू कर दिया था. अरब और इरान से कई शासक लगातार हिन्दुस्तान पर हमला कर रहे थे. बाहरी इस्लाम लगातार भारत पर लूट के लिए कब्जा कर रहा था. इसी कड़ी में मोहम्मद बिन कासिम भारत आया था और इतिहास बताता है कि इस युवा योद्धा ने सिंध के राजा दाहिर को बुरी तरह से हराया था.
बप्पा रावल गहलौत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था. मोहम्मद बिन कासिम के अत्याचार की खबर जब बप्पारावल तक पहुंची तो उन्होंने तुरन्त अपनी सेना को इकट्ठा कर युद्ध की तैयारी शुरू कर दी. बाप्पा ने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की. मोहम्मद बिन कासिम की टक्कर लेना आसान नहीं था. इसके पास लाखों सैनिकों की सेना थी. कई लाख तो इसकी सेना में धोड़े ही थे. राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने कासिम से डरकर जान बचाते हुए चित्तोड़ में शरण ली थी. कासिम ने चित्तोड़ पर हमला किया और यहाँ भयंकर युद्ध हुआ.इस युद्ध में मोहम्मद बिन कासिम की हार हुई और वो जान बचाकर सिंध भाग गया .



तो दस्तों अपने महापुरुषों को पढ़े और उनपर चर्चा करें, क्योंकि वही हमारे वास्तविक शासक है। और हमारे पूर्वजों और शासकों के बारे में अपने सुझाव दे और जानकारी शेयर करे।


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Monday, February 25, 2019

गुप्त सामाज्य का इतिहास। History of Gupta Dynasty.

गुप्त साम्राज्य का उदय Rise of Gupta Dynasty:


मौर्या सम्राज्य के पश्चात प्राचीन भारत का प्रमुख हिन्दू साम्राज्य था गुप्त साम्राज्य। इस सामाज्‍य का उदय तीसरी शताब्‍दी के अन्‍त में प्रयाग के निकट कौशाम्‍बी में हुआ था। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चलता है वो थे श्रीगुप्त। पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला हुआ था। बाद में इसका फैलाव अब के पाकिस्तान , पश्चिमी मध्य एवं पूर्वी भारत, नेपाल , बांग्लादेश तक फैला था। बाद में राजा विक्रमादित्य ने अपनी राजधानी उज्जैन में बनाई थी। गुप्त साम्राज्य 320ई से 550ई तक था उनके शासक इस प्रकार थे:
Picture from: FlexiPrep

श्रीगुप्त ShriGupt:

श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक थे। इनके साम्राज्य में हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म के मिला जुला समन्वय था।

घटोत्कच गुप्त Ghatotkach Gupt:

श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। 280 ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी। कही कही इसे पहला गुप्त शासक कहा गया है।

चन्द्रगुप्त प्रथम Chandra Gupt (I):

चंद्रगुप्त प्रथम ऐसे पहले थे जिन्हें महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। सन् 320 में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। इसका शासन काल 320 ई. से 335 ई. तक था। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था।  बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। इन्होंंने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।

समुद्रगुप्त Samudragupt:

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपाधी दी। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ दक्षिणापथ था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।

रामगुप्त RamGupt:

समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्‍न विद्वानों में मतभेद है। कहा जाता है वो बहुत कमजोर और खराब युद्धकौशल का था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय या विक्रमादित्य ChandraGupta II or Vikramaditya:

चन्द्रगुप्त ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने एसा संभवतः इसलिए किया कि शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में उसको समर्थन हासिल हो जाए। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ।
शक उस समय गुजरात तथा मालवा के प्रदेशों पर राज कर रहे थे। शकों पर विजय के बाद उसका साम्राज्य न केवल मजबूत बना बल्कि उसका पश्चिमी समुद्र पत्तनों पर अधिपत्य भी स्थापित हुआ। इस विजय के पश्चात उज्जैन गुप्त साम्राज्य की राजधानी बना। इनके महत्वपूर्ण विजय वाहीक विजय, और बंगाल विजय था।

बाद में कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त मुख्य शासक थे। तथा अंत मे इस साम्राज्य का अंत लगभग 550ई में हुई।



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Sunday, February 24, 2019

राजेन्द्र चोल एवं चोल राजवंश के इतिहास। Rajendra Chol and Chol Dynasty

राजेन्द्र चोल प्रथम(I) Rajendra chol (I):

राजेन्द्र चोल (I) चोल राजवंश के बहुत महान, शंघर्षशील एंव शक्तिशाली हिन्दू सम्राट थे, जिन्होंने अपने महान युद्ध कौशल से अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण से पूर्व एवम पश्चिम के सुदूर छेत्र तक पहुचाया। उन्हें गंगई कोंड की उपाधि दी गयी थी। वे दक्षिण भारत के बहुत शक्तिशाली सम्राट बने जिनका कार्यकाल 1012 ई से 1043 ई तक रहा।
राजेन्द्र चोल ने अपने साम्राज्य को पहले दक्षिण छोर से अब के तमिलनाडु से केरल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तक फैलाया। उसके बाद उन्होंने कई राजाओं से युद्ध करते हुए शुदुर पूर्वउत्तर छेत्रो तक पहुचाया।
परंतु इतने महान सम्राट जिन्होंने अपने पराक्रम से हिन्दू साम्राज्य को इतना बड़ा, किया फिर भी हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम से दूर है जिनका शायद ही किसी पुस्तक में जिक्र हो।

राजेन्द्र चोल का चोल साम्राज्य Chol Dynasty:

राजेन्द्र चोल का चोला साम्राज्य का फैलाव इतना दूर तक फैला था जिसमे अब के कई देश है, जो है: भारत का दक्षिण छेत्र, श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, सिंगापुर, थाईलैंड, कंबोडिया, म्यामार, मालदीव।
यह चोल साम्राज्य सन 848ई से 1279ई तक रहा, जो कि हिन्दू साम्राज्य था। यह साम्राज्य विजयालय चोल से सुरु होकर राजेन्द्र चोल III तक रहा। इनका सासन सुनियोजित रूप से कार्य करता था। सभी मंत्रियों से परामर्श लेकर कार्य किया करते थे।

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Saturday, February 23, 2019

भगवान राम का वंश और कुल। Descendants of Lord Shriram.

भगवान राम का कुल एवं वंश:

क्या कारण है कि इतिहास के पाठ्यक्रम में भगवान राम और उनके कुल का वर्णन नही मिलता। मुगल तानाशाहों के कुल के वंसज को तो हमे पढ़ाया गया हुमायूं, बाबर,अकबर ...
परंतु हमे श्रीरामबीके वंश का वर्णन इतिहास से गायब है।  इसलिए बहुत ही कम लोगो को भगवान राम के वंशज का ज्ञान समान्य लोगो को नही है। यहां पर जानकारी उन्ही की देने की कोशिश है।




भगवान विष्णु ने अपना सातवां अवतार श्रीराम के रूप में दसरथ पुत्र के रूप में लिया था। उनका यह कुल उनके पूर्वज रघु के नाम पर रघुकुल कहा जाता था, तथा उनका वंश उनके पूर्वज इक्षवाकु के नाम पर था। भगवान राम का वंश उनके पूर्वज मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह इक्षवाकु से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है:
ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए। 
भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे, उन्होंने सातों समुंद्र को खुदवाया था , सगर की दो रानिया थी एक से 60 हजार पुत्र थे जिनको कपिल मुनि ने भस्म कर दिया था। जिनके मोक्ष के लिए गंगा के अवतरण का उपाय करना था।
सगर के दूसरी पत्नी का पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। और अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलवाया था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।

रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं।
लव और कुश, भगवान राम और माता सीता के जुड़वां बच्चे थे। कुश, लव से बड़े थे। नगरवासियों की बातों को सुनकर राम ने सीता को राज्य से निकाल दिया था। तब माता सीता ने महर्षि वाल्मीकि की कुटिया में अपने सुपुत्रों को जन्म दिया था।
महर्षि वाल्मीकि ने ही लव और कुश को सभी शिक्षा दी थी। फिर जब ये कुछ बड़े हुए तो राम ने महल में अश्वमेध यज्ञ करवाया था। इसी यज्ञ के दौरान राम को ज्ञात हुआ कि लव और कुश उन्हीं के पुत्र हैं। लव-कुश के बाद कुश के पुत्र अतिथि राजा बने। मुनि वशिष्ठ के सानिध्य में अतिथि एक कुशल राजा बने। वो बड़े दिल वाले और महान योद्धा थे। अतिथि के बाद उनके पुत्र निषध राजा बने। पुण्डरीक के बाद उनके बेटे क्षेमधन्वा इस वंश के राजा बने। क्षेमधन्वा के बेटे देवताओं की सेना के लीडर थे, इसलिए उनका नाम देवानीक पड़ाराजा देवानीक के बेटे अहीनगु उनके बाद राजा बने। उन्होंने पूरी धरती पर राज किया था। वो इतने अच्छे राजा थे कि उनके दुश्मन भी उन्हें पसंद करते थे। राजा अहीनागु के बाद उनके पुत्र पारियात्र और उनके बाद उनके बेटे आदि राजा बने। रघुवंश के वंशज तो आज भी मौजूद हैं मगर अयोध्या के आखिरी नरेश राजा सुमित्रा माने जाते हैं। 
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Friday, February 22, 2019

ललितादित्य मुक्तापीड। Lalitaditya muktapid.

ललितादित्य मुक्तापीड Lalitaditya Muktapid:


ललितादित्य का शासन काल 724 से 761ईस्वी तक रहा वे कश्मीर के कर्कोटा वंस के हिन्दू सम्राट थे। जिनका इतिहास भारत के बाहर के देशों में पढ़ाया जाता है परंतु भारत मे बहुत कम लोग ही जानते होंगे। कई देशों के इतिहास में इन्हें भारत का सिकंदर alaxander कहा जाता है। रणबांकुरों की भूमि कई सदियों तक विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया। इस भूमि पर जहां अध्यात्म के ऊंचे शिखरों का निर्माण हुआ, वहीं इसके पुत्रों ने वीरभोग्या वसुंधरा जैसे क्षात्रभाव को अपने जीवन का आवश्यक अंग भी बनाया। संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर के इस वैभव के दर्शन किए जा सकते हैं।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया। उन्होने राजा यशोवर्मन को भी हराया जो हर्ष का एक उत्तराधिकारी था तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला। उनका राज्‍य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्‍तान और उत्‍तर-पूर्व में तिब्‍बत तक फैला था। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। उन्होने अनेक भव्‍य भवनों का निर्माण किया । उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। 
कर्कोटा वंस ने कई सदियों तक भारत की अरब सेनायों से संघर्ष किया था जिसका उदाहरण है कि चंद्रापीड़ शासनकाल में सातवी सताब्दी के सुरुआत में अरबों का नेता महम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था जिससे लड़ने के लिए चीनी नरेश के पास दूत भेजकर अरब आक्रमण के विरुद्ध सहायता माँगी थी। अरबों का नेता महम्मद बिन कासिम इस समय तक कश्मीर पहुँच चुका था। यद्यपि चीन से सहायता नहीं प्राप्त हो सकी तथापि चंद्रापीड़ ने कश्मीर को अरबों से आक्रांत होने से बचा लिया। उसके बाद लगभग 500 सालों तक अरब आक्रमण को कर्कोट वंशजो ने रोक परंतु यह इतिहास हमारे पाठ्यक्रम से गायब है।
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