गोपाल कृष्ण गोखले Gopal Krishna Gokhle
गोपाल कृष्ण गोखले का प्रारंभिक जीवन परिचय:
भारत के वीर सपूत गोपाल कृष्ण गोखले 9 मई 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के कोथलक गांव में एक चितपावन ब्राह्राण परिवार में जन्मे थे। गोखले ने एक गरीब परिवार में जन्म लिया था, लेकिन दुनिया को उन्होंने इस बात का कभी एहसास नहीं होने दिया और अपने जीवन में कई ऐसे काम किए जिनके लिए उन्हें आजादी के इतने साल बाद आज भी याद किया जाता है।
इनके पिता का नाम कृष्ण राव था, जो कि एक किसान थे और अपने परिवार का पालन-पोषण खेती कर करते थे लेकिन क्षेत्र की मिट्टी खेती के उपयुक्त नहीं थी। जिसकी वजह से उन्हें इस व्यापार से कुछ खास आमदनी नहीं हो पाती थी। इसलिए मजबूरी में उन्हें क्लर्क का काम करना पड़ा।
वहीं गोपाल कृष्ण गोखले की माता का नाम वालूबाई था, जो कि एक साधारण घरेलू महिला थीं और हमेशा अपने बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती थी।
बचपन से ही गोपाल कृष्ण को काफी दुख झेलने पड़े थे। दरअसल बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया था। जिससे बचपन से ही वे सहिष्णु और कर्मठ और कठोर बन गए थे। गोपालकृष्ण गोखले के अंदर शुरु से ही देश-प्रेम की भावना थी, इसलिए देश की पराधीनता उनको बचपन से ही कचोटती रहती और राष्ट्रभक्ति की अजस्त्र धारा का प्रवाह उनके ह्रदय में हमेशा बहता रहता था।
इसलिए बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। वे सच्ची लगन, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता की त्रिधारा में वशीभूत होकर काम करते थे।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने बड़े भाई की मद्द से ली। परिवारिक स्थिति को देखते हुए उनके बड़े भाई ने गोखले की पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता की।
जिसके बाद उन्होंने राजाराम हाईस्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वे मुंबई चले गए और साल 1884 में 18 साल की उम्र में मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
गोपाल कृष्ण गोखले का स्वाधीनता आंदोलन में झुकाव एवं सहयोग:
इतिहास के ज्ञान और उसकी समझ ने उन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली को समझने और उसके महत्व को जानने में मद्द की। वहीं एक शिक्षक के रुप में गोपाल कृष्ण गोखले की सफलता को देखकर बाल गंगाधर तिलक और प्रोफेसर गोपाल गणेश आगरकर का ध्यान उनकी तरफ गया और उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को मुंबई स्थित डेक्कन ऐजुकेशन सोसाइटी में शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया।
गोपाल कृष्ण गोखले हमेशा आम जनता के हित के बारे में सोचते रहते थे और उनकी परेशानियों का समाधान करने को अपना फर्ज समझते थे। वे गांधी जी के आदर्शों पर चलते थे। जिसमें समन्वय का गुण हमेशा व्याप्त रहता था। वहीं कुछ समय के बाद वे बाल गंगाधर तिलक के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज्वाइंट सेक्रेटरी बन गए।
वहीं गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक दोनों में ही काफी सामानताएं थीं, जैसे कि दोनो ही चितपावन ब्राह्मण परिवार से तालुक्कात रखते थे और दोनों ने ही मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। इसके अलावा दोनों ही गणित के प्रोफेसर थे और दोनों ही डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी के प्रमुख सदस्य भी थे।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जब कांग्रेस में साथ-साथ आए तो दोनों का ही मकसद गुलाम भारत को आजादी दिलवाने के साथ-साथ आम भारतीयों को मुश्किलों से उबारना था लेकिन समय के साथ गोखले और तिलक की विचारधाराओं और सिद्धांतों में एक अपरिवर्तनीय दरार पैदा हो गई।
महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले:
महात्मा गांधी के मुताबिक गोपाल कृष्ण गोखले को राजनीति का अच्छा ज्ञान था। गोखले के प्रति गांधी जी की अटूट श्रद्धा थी लेकिन फिर भी वह उनके वेस्टर्न इंस्टिट्यूशन के विचार से सहमत नहीं थे और उन्होंने गोखले की सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी का सदस्य बनने से मना कर दिया और उन्होंने गोखले के ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर सामाजिक सुधार कार्यों को आगे बढ़ाते हुए देश चलाने वाले उद्देश्य का समर्थन नहीं किया। वहीं उस समय महात्मा गांधी नए-नए बैरिस्टर बने थे और दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलन के बाद भारत लौटे थे। तब उन्होंने भारत के बारे में और भारतीयों के विचारों के बारे में समझने के लिए गोखले का साथ चुना क्योंकि गांधी जी, गोपाल कृष्ण गोखले के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित थे।
जिसके बाद स्वतंत्रता सेनानी गोखले ने कुछ समय तक महात्मा गांधी जी के सलाहकार के रुप में काम किया और भारतीयों की समस्याओं पर विचार-विमर्श किया। साल 1920 में गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लीडर बन गए। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में गोखले को अपना सलाहकार और मार्गदर्शक कहकर भी संबोधित किया है।
गोपाल कृष्ण गोखले का अंतिम समय एवं मृत्यु:
भारत का हीरा कहे जाने वाले गोपाल कृष्ण गोखले के जीवन के आखिरी दिनों में डाईबिटिज, कार्डिएक और अस्थमा जैसी बीमारियां हो गई थी। जिसके बाद 19 फरवरी साल 1915 को मुंबई, महाराष्ट्र में उनकी मृत्यु हो गई और इस तरह भारत का बहादुर और पराक्रमी सपूत हमेशा के लिए सो गया।
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