Wednesday, February 27, 2019

बप्पा रावल का इतिहास। History of Bappa Rawal.

बप्पा रावल Bappa Rawal:



बप्पा रावल एक ऐसा महान भारतीय हिन्दू शासक जिसे भारतीय इतिहास में वो जगह नही मिली जिसके वो हकदार थे क्योंकि इतिहास को बारीकी से पढ़ने वालों को तो शायद पढाया जाता हो परन्तु हमारी पाठ्यक्रम में स्थान नही दिया जाता।
बप्पा रावल मेवाड़ के गुहिल राजवंश के संस्थापक थे। इन्हें सिसोदिया राजवंश भी कहा जाता है जिसमे आगे चल के महान शासक राणा कुम्भा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे वीर और पराक्रमी हुए। पप्पा इनका मूल नाम नही था अपितु एक आदरसूचक शब्द है जो पिता या महान व्यक्ति के लिए स्तेमाल किया जाता है। इन्ही के नाम पर रावलपिंडी नामक सहर है जो अब के पाकिस्तान में है।

बप्पा रावल का अरब और स्लामिक हमलावर से भिडंत:

जब कासिम सिंध से आगे बढ़ा तो अच्छे-अच्छे राजाओं की हालत खराब हो गयी थी. कासिम लगातार हिन्दू औरतों की इज्जत लूट रहा था. बच्चों का कत्लेआम कर रहा था लेकिन कोई भी हिन्दुतानी राजा इसकी टक्कर नहीं ले पा रहा था. तब यह खबर शिव के भक्त और राजस्थान के हिन्दू शेर योद्धा बप्पारावल तक पहुंची तो बप्पा ने कासिम को ऐसा सबक सिखाया कि . सालों तक भारत में कोई विदेशी आक्रमणकारी भारत की तरफ आँख नहीं उठा पाया।
यह एतिहासिक कहानी उन दिनों की है जब भारत पर बाहरी आक्रमणकारी लोगों ने हमला शुरू कर दिया था. अरब और इरान से कई शासक लगातार हिन्दुस्तान पर हमला कर रहे थे. बाहरी इस्लाम लगातार भारत पर लूट के लिए कब्जा कर रहा था. इसी कड़ी में मोहम्मद बिन कासिम भारत आया था और इतिहास बताता है कि इस युवा योद्धा ने सिंध के राजा दाहिर को बुरी तरह से हराया था.
बप्पा रावल गहलौत राजपूत वंश के आठवें शासक थे और उनका बचपन का नाम राजकुमार कलभोज था. मोहम्मद बिन कासिम के अत्याचार की खबर जब बप्पारावल तक पहुंची तो उन्होंने तुरन्त अपनी सेना को इकट्ठा कर युद्ध की तैयारी शुरू कर दी. बाप्पा ने अजमेर और जैसलमेर जैसे छोटे राज्यों को भी अपने साथ मिला लिया और एक बलशाली शक्ति खड़ी की. मोहम्मद बिन कासिम की टक्कर लेना आसान नहीं था. इसके पास लाखों सैनिकों की सेना थी. कई लाख तो इसकी सेना में धोड़े ही थे. राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने कासिम से डरकर जान बचाते हुए चित्तोड़ में शरण ली थी. कासिम ने चित्तोड़ पर हमला किया और यहाँ भयंकर युद्ध हुआ.इस युद्ध में मोहम्मद बिन कासिम की हार हुई और वो जान बचाकर सिंध भाग गया .



तो दस्तों अपने महापुरुषों को पढ़े और उनपर चर्चा करें, क्योंकि वही हमारे वास्तविक शासक है। और हमारे पूर्वजों और शासकों के बारे में अपने सुझाव दे और जानकारी शेयर करे।


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Monday, February 25, 2019

गुप्त सामाज्य का इतिहास। History of Gupta Dynasty.

गुप्त साम्राज्य का उदय Rise of Gupta Dynasty:


मौर्या सम्राज्य के पश्चात प्राचीन भारत का प्रमुख हिन्दू साम्राज्य था गुप्त साम्राज्य। इस सामाज्‍य का उदय तीसरी शताब्‍दी के अन्‍त में प्रयाग के निकट कौशाम्‍बी में हुआ था। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चलता है वो थे श्रीगुप्त। पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला हुआ था। बाद में इसका फैलाव अब के पाकिस्तान , पश्चिमी मध्य एवं पूर्वी भारत, नेपाल , बांग्लादेश तक फैला था। बाद में राजा विक्रमादित्य ने अपनी राजधानी उज्जैन में बनाई थी। गुप्त साम्राज्य 320ई से 550ई तक था उनके शासक इस प्रकार थे:
Picture from: FlexiPrep

श्रीगुप्त ShriGupt:

श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक थे। इनके साम्राज्य में हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म के मिला जुला समन्वय था।

घटोत्कच गुप्त Ghatotkach Gupt:

श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। 280 ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी। कही कही इसे पहला गुप्त शासक कहा गया है।

चन्द्रगुप्त प्रथम Chandra Gupt (I):

चंद्रगुप्त प्रथम ऐसे पहले थे जिन्हें महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। सन् 320 में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। इसका शासन काल 320 ई. से 335 ई. तक था। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था।  बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। इन्होंंने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।

समुद्रगुप्त Samudragupt:

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपाधी दी। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ दक्षिणापथ था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।

रामगुप्त RamGupt:

समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्‍न विद्वानों में मतभेद है। कहा जाता है वो बहुत कमजोर और खराब युद्धकौशल का था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय या विक्रमादित्य ChandraGupta II or Vikramaditya:

चन्द्रगुप्त ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने एसा संभवतः इसलिए किया कि शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में उसको समर्थन हासिल हो जाए। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ।
शक उस समय गुजरात तथा मालवा के प्रदेशों पर राज कर रहे थे। शकों पर विजय के बाद उसका साम्राज्य न केवल मजबूत बना बल्कि उसका पश्चिमी समुद्र पत्तनों पर अधिपत्य भी स्थापित हुआ। इस विजय के पश्चात उज्जैन गुप्त साम्राज्य की राजधानी बना। इनके महत्वपूर्ण विजय वाहीक विजय, और बंगाल विजय था।

बाद में कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त मुख्य शासक थे। तथा अंत मे इस साम्राज्य का अंत लगभग 550ई में हुई।



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Sunday, February 24, 2019

राजेन्द्र चोल एवं चोल राजवंश के इतिहास। Rajendra Chol and Chol Dynasty

राजेन्द्र चोल प्रथम(I) Rajendra chol (I):

राजेन्द्र चोल (I) चोल राजवंश के बहुत महान, शंघर्षशील एंव शक्तिशाली हिन्दू सम्राट थे, जिन्होंने अपने महान युद्ध कौशल से अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण से पूर्व एवम पश्चिम के सुदूर छेत्र तक पहुचाया। उन्हें गंगई कोंड की उपाधि दी गयी थी। वे दक्षिण भारत के बहुत शक्तिशाली सम्राट बने जिनका कार्यकाल 1012 ई से 1043 ई तक रहा।
राजेन्द्र चोल ने अपने साम्राज्य को पहले दक्षिण छोर से अब के तमिलनाडु से केरल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तक फैलाया। उसके बाद उन्होंने कई राजाओं से युद्ध करते हुए शुदुर पूर्वउत्तर छेत्रो तक पहुचाया।
परंतु इतने महान सम्राट जिन्होंने अपने पराक्रम से हिन्दू साम्राज्य को इतना बड़ा, किया फिर भी हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम से दूर है जिनका शायद ही किसी पुस्तक में जिक्र हो।

राजेन्द्र चोल का चोल साम्राज्य Chol Dynasty:

राजेन्द्र चोल का चोला साम्राज्य का फैलाव इतना दूर तक फैला था जिसमे अब के कई देश है, जो है: भारत का दक्षिण छेत्र, श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, सिंगापुर, थाईलैंड, कंबोडिया, म्यामार, मालदीव।
यह चोल साम्राज्य सन 848ई से 1279ई तक रहा, जो कि हिन्दू साम्राज्य था। यह साम्राज्य विजयालय चोल से सुरु होकर राजेन्द्र चोल III तक रहा। इनका सासन सुनियोजित रूप से कार्य करता था। सभी मंत्रियों से परामर्श लेकर कार्य किया करते थे।

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Saturday, February 23, 2019

भगवान राम का वंश और कुल। Descendants of Lord Shriram.

भगवान राम का कुल एवं वंश:

क्या कारण है कि इतिहास के पाठ्यक्रम में भगवान राम और उनके कुल का वर्णन नही मिलता। मुगल तानाशाहों के कुल के वंसज को तो हमे पढ़ाया गया हुमायूं, बाबर,अकबर ...
परंतु हमे श्रीरामबीके वंश का वर्णन इतिहास से गायब है।  इसलिए बहुत ही कम लोगो को भगवान राम के वंशज का ज्ञान समान्य लोगो को नही है। यहां पर जानकारी उन्ही की देने की कोशिश है।




भगवान विष्णु ने अपना सातवां अवतार श्रीराम के रूप में दसरथ पुत्र के रूप में लिया था। उनका यह कुल उनके पूर्वज रघु के नाम पर रघुकुल कहा जाता था, तथा उनका वंश उनके पूर्वज इक्षवाकु के नाम पर था। भगवान राम का वंश उनके पूर्वज मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह इक्षवाकु से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है:
ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए। 
भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे, उन्होंने सातों समुंद्र को खुदवाया था , सगर की दो रानिया थी एक से 60 हजार पुत्र थे जिनको कपिल मुनि ने भस्म कर दिया था। जिनके मोक्ष के लिए गंगा के अवतरण का उपाय करना था।
सगर के दूसरी पत्नी का पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। और अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलवाया था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।

रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं।
लव और कुश, भगवान राम और माता सीता के जुड़वां बच्चे थे। कुश, लव से बड़े थे। नगरवासियों की बातों को सुनकर राम ने सीता को राज्य से निकाल दिया था। तब माता सीता ने महर्षि वाल्मीकि की कुटिया में अपने सुपुत्रों को जन्म दिया था।
महर्षि वाल्मीकि ने ही लव और कुश को सभी शिक्षा दी थी। फिर जब ये कुछ बड़े हुए तो राम ने महल में अश्वमेध यज्ञ करवाया था। इसी यज्ञ के दौरान राम को ज्ञात हुआ कि लव और कुश उन्हीं के पुत्र हैं। लव-कुश के बाद कुश के पुत्र अतिथि राजा बने। मुनि वशिष्ठ के सानिध्य में अतिथि एक कुशल राजा बने। वो बड़े दिल वाले और महान योद्धा थे। अतिथि के बाद उनके पुत्र निषध राजा बने। पुण्डरीक के बाद उनके बेटे क्षेमधन्वा इस वंश के राजा बने। क्षेमधन्वा के बेटे देवताओं की सेना के लीडर थे, इसलिए उनका नाम देवानीक पड़ाराजा देवानीक के बेटे अहीनगु उनके बाद राजा बने। उन्होंने पूरी धरती पर राज किया था। वो इतने अच्छे राजा थे कि उनके दुश्मन भी उन्हें पसंद करते थे। राजा अहीनागु के बाद उनके पुत्र पारियात्र और उनके बाद उनके बेटे आदि राजा बने। रघुवंश के वंशज तो आज भी मौजूद हैं मगर अयोध्या के आखिरी नरेश राजा सुमित्रा माने जाते हैं। 
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Friday, February 22, 2019

ललितादित्य मुक्तापीड। Lalitaditya muktapid.

ललितादित्य मुक्तापीड Lalitaditya Muktapid:


ललितादित्य का शासन काल 724 से 761ईस्वी तक रहा वे कश्मीर के कर्कोटा वंस के हिन्दू सम्राट थे। जिनका इतिहास भारत के बाहर के देशों में पढ़ाया जाता है परंतु भारत मे बहुत कम लोग ही जानते होंगे। कई देशों के इतिहास में इन्हें भारत का सिकंदर alaxander कहा जाता है। रणबांकुरों की भूमि कई सदियों तक विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया। इस भूमि पर जहां अध्यात्म के ऊंचे शिखरों का निर्माण हुआ, वहीं इसके पुत्रों ने वीरभोग्या वसुंधरा जैसे क्षात्रभाव को अपने जीवन का आवश्यक अंग भी बनाया। संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर के इस वैभव के दर्शन किए जा सकते हैं।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया। उन्होने राजा यशोवर्मन को भी हराया जो हर्ष का एक उत्तराधिकारी था तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला। उनका राज्‍य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्‍तान और उत्‍तर-पूर्व में तिब्‍बत तक फैला था। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। उन्होने अनेक भव्‍य भवनों का निर्माण किया । उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। 
कर्कोटा वंस ने कई सदियों तक भारत की अरब सेनायों से संघर्ष किया था जिसका उदाहरण है कि चंद्रापीड़ शासनकाल में सातवी सताब्दी के सुरुआत में अरबों का नेता महम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था जिससे लड़ने के लिए चीनी नरेश के पास दूत भेजकर अरब आक्रमण के विरुद्ध सहायता माँगी थी। अरबों का नेता महम्मद बिन कासिम इस समय तक कश्मीर पहुँच चुका था। यद्यपि चीन से सहायता नहीं प्राप्त हो सकी तथापि चंद्रापीड़ ने कश्मीर को अरबों से आक्रांत होने से बचा लिया। उसके बाद लगभग 500 सालों तक अरब आक्रमण को कर्कोट वंशजो ने रोक परंतु यह इतिहास हमारे पाठ्यक्रम से गायब है।
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Thursday, February 21, 2019

दारा शूकोह का इतिहास History of Dara Shukoh in hindi.

दारा शूकोह Dara Shukoh:

मुगल प्रिंस दारा शूकोह

दारा शूकोह मुगल बादशाह साहजहां और मुमताज़ महल का बड़ा(जेष्ठ) पुत्र था, जिसे साहजहां ने अपने जीतेजी ही अपना उत्तराधिकारी बनाया था परंतु उसके विचारों से भाईओं और मुस्लिम विचारकों में मतभेद था। बाल्यकाल से ही दारा शूकोह का अध्यात्म के प्रति लगाव था। इसलिए कुछ कट्टर मुसलमान उसे धर्मद्रोही मानते थे, तथापि दारा ने इस्लाम की मुख्य भूमि को नहीं छोड़ा। उसे धर्मद्रोही करार दिए जाने का मुख्य कारण उसकी सर्व-धर्म-सम्मिश्रण की प्रवृत्ति थी, जिससे इस्लाम की स्थिति के क्षीण होने का भय था। दारा शूकोह का जन्म 1615 में मृत्यु 1959 दिल्ली में औरंगजेब के द्वारा हुई। 

दारा शूकोह का व्यक्तित्व:


इतिहासकार बर्नीयर ने लिखा है कि दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी , हाजिर जबाबी, नम्र और अतयन्त उदार व्यक्ति था। वह अपने को बहुत बुद्धिमान और समझदार समझता था। लोग उससे डरते थे। उसे सही सलाह देने से डरते थे। उसके और भाई पसन्द नहीं करते थे।दारा शूकोह बौद्धिक दृष्टि से अपने परदादा अकबर के गुणों व आदर्शों का अनुयायी था। वह इसी से पे्ररित होकर तालमद , बाइबिल, हिन्दू बेदान्त आदि दर्शनों का उसने अध्ययन कर रखा था। जिन धार्मिक तथ्यों में मतभिन्नता थी उनमें समन्वय करके वह बीच का रास्ता निकालना अपना मुख्य उद्देश्य बना रखा था। वह हिन्दू योगी लालदास तथा मुस्लिम फकीर सरमद का समान रूप से शिष्य था। वह दोनों के सदविचारों को ग्रहण किया था।  वह अपना क्रोध जल्द ही जल्द शान्त कर लेता था। 1653 में उसकी कांधार में पराजय हुई फिर भी शाहजहां उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखता था। 

दारा शूकोह का धार्मिक व दार्शनिक विचारक:

वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। हिन्दू व ईसाई धर्म में भी रूचि थी। इससे नाराज होकर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगया था। वह सूफी और तौहीद का जिज्ञासु और संत महात्माओं से मिलता रहता था। एसे अनेक चित्र मिले हैं जिसमें दारा हिन्दू सन्यासियों और मुसलमान फकीरों के संगत में रहा है। वह एक कुशल लेखक भी था। उसने ’’सफीनात अल औलिया’’ व ’’सकीनात अल औलिया’’ सूफी संतो पर लिखी है। उसने ’’रिसाला ए हकनुमा’’ और ’’ तारीकात ए हकीकत’’ सूफी की दार्शनिक पुस्तकें लिखी है। उसकी कविता संग्रह ’’अक्सीर ए आजम ’’ में सर्वेश्वरवादी प्रकृति का बोध होता है। धर्म और वैराग्य के लिए उसने ’’ हसनात अल आरिफीन’’ और ’’मुकालम ए बाबालाल ओ दाराशिकोह’’ पुस्तकें लिखी है। वेदान्त और सूफीबाद की तुलना उसके ’’ मजमा अल बहरेन’’ ग्रंथ की रचना की है। उसने 52 उपनिषदों का अनुवाद ’’ सीर ए अकबर’’ ग्रंथ में किया।

दारा शूकोह का सर्वधर्म के प्रति समभाव रखना ही उसके मृत्यु का कारण बना। उसके विचारों से उसके भाईओं का विशेषकर औरंगजेब के मतभेद था। कई इतिहासकार उसे गुणवान और वीर नही बताते क्योंकि वह अपने पिता के साथ रहना चाहता था और जब साहजहां ने विभाजन करके सब को अलग अलग छेत्र दे दिए तब भी वो पिता के साथ रहता था जबकि उसके भाई सीमा और सैन्य शक्ति बढ़ाने में लगे रहते थे। यही कारण है कि जब साहजहां बीमार पड़े तो औरंगजेब ने फायदा उठाया और दारा शूकोह को पराजित किया।


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